आप सभी जानते होंगे कि राजस्थान भारतवर्ष के पश्चिम भाग में अवस्थित है जो प्राचीन काल से विख्यात रहा है। तब इस प्रदेश में कई इकाइयाँ सम्मिलित थी जो अलग-अलग नाम से सम्बोधित की जाती थी । उदाहरण के लिए जयपुर राज्य का उत्तरी भाग मध्यदेश का हिस्सा था तो दक्षिणी भाग सपादलक्ष कहलाता था। अलवर जिले का पूर्वी क्षेत्र, बयाना और भरतपुर का हिस्सा था। अलवर जिले का पूर्वी क्षेत्र, बयाना और भरतपुर का समस्त भूभाग काठेड़ कहलाता था । धोलपुर, करौली राज्य शूरसेन देश में सम्मिलित थे । इसी प्रकार जैसलमेर राज्य के अधिकांश भागवल्ल देश में सम्मिलित थे । जोधपुर मरुदेश के नाम से जाना जाता था। जोधपुर का दक्षिणी भाग गुर्जरत्रा (गुजरात) के नाम से पुकारा जाता था। प्रतापगढ़, झालावाड़ तथा टोंक का अधिकांश भाग मालवादेश के अधीन था। मेवाड़ जहाँ शिवि जनपद का हिस्सा था वहाँ डूंगरपुर-बांसवाड़ा बागड़ के नाम से जाने जाते थे। बीकानेर राज्य तथा जोधपुर का उत्तरी भाग बागड़ प्रदेश अथवा जांगल देश कहलाता था । सीकर और झुंझुनू जिले अनंतगोचर का भाग थे
राजस्थान के उत्तरी-पूर्वी इलाके पर सात बड़े जाट जनपद थे गोदारा, सारण, सोहुआ, कसवा, सिहाग, बेणीवाल तथा पूनिया आदि की जहाँ शासन सत्ता थी ।
जोहिया वंश के जाटों की शाखाएं: कुलड़िया, कुहाड़, दूलड़, भाटी, मोहिल (ढ़ाण्डा), खीचड़ आदि भी भिन्न-भिन्न जनपदों के मालिक थे ।
चौहान संघ के जाटों की शाखाएं : बुरड़क, सुहाग, रोज भूकर, डूडी, मोठसरा, दहिया, भड़िया आदि बीकानेर संभाग में शासित थे।
जाटों के अन्य ठिकाने: जाखड़, भादू, भादू, नैण, चाहर, कालेर, सींवर, घनघस, गुलेरिया आदि भी छोटे-मोटे ठिकानों पर सत्तासीन थे । जाटों का सिंध से बीकानेर संभाग में आगमन:- डॉ. पेमाराम लिखते हैं कि जाट मूलतः सिंधु घाटी के निवासी थे और सिंधु नदी के दोनों किनारों पर आबाद थे। इनकी मुख्य आबादी निचले सिंध विशेषकर ब्राह्मणाबाद (मनसुरा) में थी। सिंध प्रांत यानि उत्तर में पेशावर से लेकर दक्षिण में देवल बन्दरगाह तक यानि सिंधु नदी का पूरा इलाका जिसमें मकरान (आधुनिक बलोचिस्तान) भी सम्मिलित है । (डॉ पेमाराम, 326 ई. पूर्व में जिस समय भारत पर सिकन्दर का आक्रमण हुआ उस समय पंजाब में बसे जाटों को सिकन्दर के आक्रमण से जर्जरित तथा अपनी स्वतंत्रता को बनाये रखने के लिए राजस्थान की ओर आने को विवश होना पड़ा। यहाँ आकर वे अपनी सुविधा अनुसार बस गये। पानी के साधन हेतु बस्तियों के आस-पास तालाब, कुएं व बावड़ियाँ खोद ली । इन जातियों में शिवि, यौधेय, मालव, मद्र आदि प्रमुख गण थे। मरूभूमि में जो शिवि, रावी, और व्यास नदियों से आये, उन्होंने सोजत, सिवाना, शेरगढ़ शिवगंज आदि नगर आबाद किये। यह इलाका सिंध देश से मिला हुआ था, जहाँ बहुतायत से जाट बसे हुए थे । (डॉ. पेमाराम, पृ. 13)
राजस्थान में आने के बाद शिवि, मालव, यौधेय आदि जातियां जनपद के रूप में व्यवस्थित हो गये । शिवि जनपद के प्राचीन पुरावशेष राजस्थान के माध्यमिका अथवा वर्तमान मेवाड़ में मिले हैं। मालव जाति का केंद्र जयपुर के निकट नगर था । समयांतर में मालव अजमेर, टोंक तथा मेवाड़ के क्षेत्र में फैल गये और प्रथम शताब्दी के अंत तक गणतंत्रीय राज्य के रूप में बने रहे। राजस्थान के उत्तरी भाग में यौधेय भी एक बलशाली गणतंत्रीय कबीला था जिसमें कुमारस्वामी इनका बड़ा शक्तिशाली नेता हो चुका है । यौधेय सम्भवतः उत्तरी राजस्थान की कुषाण शक्ति को नष्ट करने में सफल हुए थे । इस तरह दूसरी शताब्दी ई. पूर्व से लेकर चौथी शताब्दी के प्रारंभ तक शिवि, मालव, यौधेयों की प्रभुता का काल राजस्थान में विद्यमान था। (डॉ पेमाराम, पृ. 14)
महमूद गजनवी ने 1008 से 1027 ई. के आक्रमणों के दौरान बड़ी संख्या में जाटों को मौत के घाट उतारा। इस दौरान अनेक जाटों ने भागकर अपने प्राण बचाये और वे सिन्ध व पंजाब को छोड़कर राजस्थान में आये और सरस्वती के किनारे-किनारे आगे बढ़कर गंगानगर, बीकानेर और चूरु क्षेत्र में बस गये । (डॉ पेमाराम, पृ. 16)
इसके बाद शाहबुद्दीन मुहम्मद गौरी ने 1175 ई. से भारत पर अनेक आक्रमण किये और दिल्ली, कन्नौज, अजमेर आदि स्थानों पर अधिकार कर लिया। 1192 में तराईन के द्वितीय युद्ध में पृथ्वीराज तृतीय को पराजित कर जब कुतुबुद्दीन ऐबक ने पंजाब पर अधिकार करने की कोशिश की तब कुतुबुद्दीन ऐबक के अत्याचारों से तंग आकर अधिकांश जाट पंजाब व हांसी से हिसार, राजगढ़, रिणी, लूणकरणसर, सिद्धमुख, नोहर, सरदारशहर, डूंगरगढ आदि इलाकों में आकर आबाद हुये । (डॉ पेमाराम, पृ. 17)
इस प्रकार 326 ई. पूर्व के सिकन्दर आक्रमण से लेकर अरबों व तुर्कों के आक्रमण के कारण जाटों की आश्रय- भूमि सिन्ध और पंजाब को छोड़कर सुरक्षित स्थान के लिये राजस्थान की ओर आना पड़ा। राजस्थान में जाटों ने तीन ओर से प्रवेश कियाः- 1. पहला, सिन्ध नदी से उमरकोट होते हुये बाढमेर, जालोर, सिरोही तक 2. दूसरा सतलुज की ओर से बीकानेर (जांगल) के रास्ते नागौर, बून्दी, कोटा आगे मालवा तक और 3. तीसरा पंजाब में सिरसा, हिसार, हांसी होते हुये हनुमानगढ़, सिद्धमुख, नोहर, राजगढ़, तारानगर, सरदारशहर, लूणकरणसर व डूंगरगढ़ तक ।
मारवाड़ और जांगल प्रदेश में बसने के कारण पानी की कमी की पूर्ति के लिए पानी के साधनों का विकास किया । मारवाड़ और जांगल प्रदेश में जितने कुएं, तालाब, बावड़ियां बनी हैं उनमें से अधिकांश जाट व्यक्तियों द्वारा बनाई गई और वे उन्हीं के नाम से जानी जाती हैं।
बीकानेर संभाग में स्थापित प्राचीन जाट गण राज्य :- इस इतिहास में बीकानेर संभाग में स्थापित प्राचीन जाट गण राज्यों का विस्तृत इतिहास दिया जाना प्रासंगिक नहीं है। क्योंकि मैं ढ़ाण्डा जन का इतिहास लिख रहा हूँ। हां इतना अवश्य है कि संक्षिप्त सा इतिवृत्त तो पाठकों को बताया ही जाना चाहिये । वर्तमान बीकानेर संभाग के अन्तर्गत वर्तमान बीकानेर, चुरू, हनुमानगढ़ और गंगानगर जिले आते हैं। राजस्थान के प्राचीन जाट गण राज्य गोत्र के रूप में संगठित थे । इन्हीं की प्रतिरूप हरयाणा और पश्चिम उत्तरप्रदेश में खाप व्यवस्था थी। बीकानेर संभाग का अधिकांश भाग यहाँ राठोड़ों के आगमन से पूर्व प्राचीन बागड़ अथवा जांगल प्रदेश का हिस्सा था। बीकानेर संभाग का कुछ भाग प्राचीन हरयाणा के अंतर्गत होने का भी उल्लेख इतिहासकारों द्वारा किया गया है। उल्लेखनीय है कि भगवान हर (शिव) के मैदानी क्षेत्रों में आगमन के समय प्राचीन हरयाणा का गठन हुआ था । तत्समय राजस्थान का उत्तर-पूर्वी भाग (गंगानगर, हनुमानगढ़, झुंझनुं एवं चूरू) प्राचीन हरयाणा में सम्मिलित था । ये जिले प्राचीन बागड़ देश का भाग थे। बीकानेर संभाग के प्राचीन भूभागों पर यौधेय जाट गणों का लंबे समय तक गणतांत्रिक पद्धति का शासन रहा है। ढ़ाण्डा जन इसी गण में थे ।
इतिहासकार रतन लाल मिश्र मानते हैं कि राजस्थान में राजपूत कुलों के शासन के पूर्व इस क्षेत्र में जाट जाति उपस्थित थी जिसका शासन गणराज्य की पंचायत पद्धति पर चलता था। ठाकुर देशराज और दलीप सिंह अहलावत ने जाट इतिहास में अनेक जाट गणराज्यों का वर्णन किया है। डॉ. पेमा राम ने राजस्थान के जाटों का इतिहास पुस्तक में राजस्थान के जाटों के गणराज्य एवं उनका पतन तथा जाट जनपदों की प्रशासनिक व्यवस्था पर विस्तार से प्रकाश डाला है। बाद में जब राजपूतों ने इस राज्य के विविध भागों पर अपना आधिपत्य जमा लिया तो उन भागों का नामकरण अपने-अपने वंश अथवा स्थान के अनुरूप कर दिया। ये राज्य उदयपुर, डूंगरपुर, बांसवाड़, प्रतापगढ़, जोधपुर, बीकानेर, किशनगढ़ सिरोही, कोटा, बूंदी, जयपुर, अलवर, करौली और झालावाड़ थे । भरतपुर एवं धोलपुर में जाटों का राज्य रहा तथा टोंक में मुस्लिम राज्य था । बीकानेर रियासत की स्थापना से पूर्व यह इलाका सात जाट जनपदों के अधीन था। प्राचीनकाल व पूर्व मध्यकाल तक जाट जाति उन्नत अवस्था में थी और राजस्थान के विभिन्न भागों में उनका गणतंत्रात्मक शासन था। जाटों के गणतंत्रात्मक शासन व्यवस्था पर बागड़ प्रदेश में लोकोक्ति प्रचलित थी । सात पट्टी, सताईस मांजरा और सब आदर - खादरा अर्थात् इस जाङ्गल प्रदेश में सात बड़े जनपद, सताईस मंझले प्रदेश तथा शेष असंख्य जाट जनपद थे। बालू के टीलों से भरी-पूरी वृक्ष विहीन बंजर भूमि, नदी नाले से विहीन, कम वर्षा व विषम भौगोलिक परिस्थितियों वाले इस मरुप्रदेश में जाटों ने दूर-दूर तक अपनी बस्तियां बसाई तथा अन्य जातियों को अपने साथ बसाया। पीने के पानी के नितांत अभाव वाले इस क्षेत्र में कुएं बनाए, वर्षा जल संग्रहण हेतु तालाब बनाये । धरती पुत्र अन्नदाता जाटों ने इस प्रदेश को कृषि योग्य बनाया तथा कृषि और पशुपालन से सबका भरण-पोषण किया । इस जांगल प्रदेश में मानव जीवन की रेखा खींचकर इसे आबाद किया। बीकानेर स्टेट की स्थापना से पूर्व भाडंग, सिद्धमुख, लुद्धि, धानसिया, रायसलाना, पल्लू आदि प्राचीन व्यापारिक केंद्र थे ।
पाणिनी (500 ई. पू.) को जाटों की शासन प्रणाली का ज्ञान था। तभी उन्होंने अष्टाध्यायी व्याकरण में जट धातु का प्रयोग कर जट झट संघाते सूत्र बना दिया। जाट शब्द एक संघ के रूप में परिभाषित हुआ है । संस्कृत के 'जट' धातु से ही हिन्दी का 'जाट' शब्द बना है | पाणिनी द्वारा अष्टाध्यायी में यौधेयादि जनपदों के अंतर्गत अनेक आयुधजीवी संघों का वर्णन किया गया है । यथा - 1. शौभ्रेय जो संस्कृत के शुभ्र से बना है और राजस्थानी में धोलिया कहलाते हैं। ये चिनाब नदी के निचले भूभाग में बसे थे जहां रावी नदी इसमें मिलती है। इनका सामना सिकंदर से लौटते समय में हुआ था । 2. शौभ्रेय - इनको सिथियन जाट बताया गया है। 3. वार्तेय - ये महाभारत के वरात्य और जाट इतिहास के वरतेति या विजयराणिया या बिजारणिया थे । 4. धार्तेय ये महाभारत के धार्तराष्ट्र और जाट इतिहास के धरतवाल या धतरवाल थे। 5. ज्याबाणेय अर्थात् जाबाली, जावलिया आदि गोत्र थे । 6 त्रिगर्त संघ - इनसे अनेक जाट गोत्र निकले हैं जिसमें दाण्डकि ( ढ़ाण्डा) कुण्डू आदि प्रमुख थे । 7 भारत.. 8 उसीनर- ये अनेक जाट गोत्रों के पूर्वज रहे हैं। (वासुदेव सरन अग्रवालः इंडिया एज नॉन टु पाणिनी, पृ. 426,431, 434-436,445,449,500)
सिंध और पंजाब से समय-समय पर ज्यों-ज्यों जाट राजस्थान में आते गए, मरूस्थलीय प्रदेशों में बसने के साथ ही उन्होंने प्रजातांत्रिक तरीके से अपने छोटे-छोटे गणराज्य बना लिए जो अपनी सुरक्षा की व्यवस्था स्वयं करते थे तथा मिल बैठकर अपने आपसी विवाद सुलझा लेते थे। ऐसे गणराज्य तीसरी शादी से लेकर सोलहवीं शदी तक चलते रहे। तीसरी शदी तक जांगल प्रदेश पर यौधेयों का अधिकार था। इसके बाद नागों ने उन्हें हराकर जांगल प्रदेश (वर्तमान बीकानेर और नागौर जिला ) पर अधिकार कर लिया।
दलीप सिंह अहलावत ने लिखा है कि चन्द्रवंशी सम्राट् ययाति के चौथे पुत्र का नाम अनु था। अनु की नौवीं पीढ़ी में उशीनर था जो पंजाब की अधिकांश भूमि का शासक था । उनकी पांच रानियां थी। बड़ी रानी नृगा से नृग पुत्र हुआ। नृग के पुत्र का नाम यौधेय था । इससे ही यौधेय वंश चला जो जाट वंश है। यह भाषाभेद से जोहिया नाम से प्रचलित हुआ । यौधेय गणराज्य शतद्रु (सतलुज ) नदी के दोनों तटों से आरम्भ होता था । बहावलपुर (पाकिस्तान) राज्य इनके अन्तर्गत था। वहां से लेकर बीकानेर राज्य के उत्तरी प्रदेश गंगानगर आदि, हिसार जींद, करनाल, अम्बाला, रोहतक, गुड़गावां, महेन्द्रगढ़, दिल्ली राज्य तक प्रायः समूचे उत्तरी दक्षिणी और पूर्वी राजस्थान में फैला था। अलवर, भरतपुर, धौलपुर राज्य इसी के अन्तर्गत आ जाते थे । यौधेयों के समूह के संघों में होशियारपुर, कांगड़ा तक प्रदेशों की गिनती होती थी । देहरादून, सहारनपुर, मुजफ्फरनगर, मेरठ, बुलन्दशहर, अलीगढ़, मथुरा आगरा, मैनपुरी, एटा, बदायूं, बरेली, बिजनौर, पीलीभीत, मुरादाबाद, रामपुर जिला आदि सारा पश्चिम उत्तरप्रदेश यौधेय गण के अन्तर्गत था । एक समय तो ऐसा आया था कि मुलतान के पास क्रोडपक्के का दुर्ग तथा मध्यप्रदेश का मन्दसौर तक का प्रदेश भी यौधेयों के राज्य में सम्मिलित था । सिकन्दर सम्राट् इनकी शक्ति से डरकर व्यास नदी से वापिस लौट गया था ।
ईसा की तीसरी शताब्दी तक यौधेय दल ने मारवाड़ (जोधपुर), जैसलमेर, बीकानेर (जांगल ) प्रदेश की बहुत बड़ी भूमि पर अधिकार कर लिया था। जाटों में इस समय यौधेय के जो वंशज हैं वे कुलरिया, कुहाड़ ढाण्डा (महला), माहिल, खीचड़ आदि कहलाते हैं। कहने का तात्पर्य है कि ढ़ाण्डा लोग यौधेयों के आयुधजीवी संघ में सम्मिलित थे क्योंकि स्पष्ट है कि यौधेयों की कालान्तर में कई शाखाएं हो गई थी । ढ़ाण्डा कुहाड़, कुलड़ियाँ, खीचड़ आदि शाखाएं राजस्थान हरयाणा, पंजाब, और उत्तरप्रदेश में फैल गई । यौधेय संघ की वीर गाथाएं सुनकर आज भी रोमांच हो उठते हैं।
सात बड़े जाट जनपद - गोदारा, सारण, सोहुआ, कसवा, सिहाग, बेणीवाल, पूनिया राजस्थान के अनेक क्षेत्रों पर जाटों ने भिन्न-भिन्न समय पर राज किया था परन्तु उनकी मुख्य सत्ता राजस्थान के उत्तरी - पूर्वी इलाके पर थी, जहाँ इनके सात बड़े राज्य थे। ये थे - 1. लाघड़िया व शेखसर के गोदारा, 2. भाड़ंग के सारण, 3. धाणसिया के सोहुआ, 4. सीधमुख के कसवा, 5. लूद्दी (लून्दी ) के पूनियां, 6. सूई के सिहाग, 7. रायसलाणा के बेणी वाल । इनके अतिरिक्त भादू, भूकर, जाखड़, कल्हेर, नैन आदि अन्य छोटे ठिकाने भी थे । इन सब जाट राज्यों के सम्बन्ध में एक कहावत प्रसिद्ध थी - सात पट्टी सातवां मांझरे अर्थात सात बड़े और सतावन छोटे राज्य थे ।
वर्तमान बीकानेर तथा जोधपुर संभाग का उत्तरी भाग प्राचीन काल से जांगल देश कहलाता था । इसके अन्तर्गत वर्तमान बीकानेर, चुरू, हनुमानगढ़ और गंगानगर जिले आते हैं। भूतपूर्व बीकानेर राज्य की स्थापना से पहले इस भूभाग में जाटों के सात बड़े गणराज्य थे । दयालदास के अनुसार उस समय जाटों के अधीन गाँवों की संख्या 2040 थी। जबकि कर्नल टॉड ने जाट राज्यों के गाँवों की संख्या 2200 बताई है। (जेम्स टॉड कृत राजस्थान का इतिहास, अनुवाद कालूराम शर्मा, पृ. 402-403 गाँवों की कुल संख्या 2200) कर्नल जेम्स टोड ने लेख किया है कि इनके अलावा तीन और विभाग थे । बागौर, खारी पट्टी और मोहिल (ढ़ाण्डा)। इन पर भी राठौड़ों का प्रभुत्व कायम हो गया था। राजपूत शाखाओं से छिने गए ये तीन विभाग राज्य के दक्षिण और पश्चिम में थे । ( जेम्स टोड कृत राजस्थान का इतिहास, अनुवाद कालूराम शर्मा, पृ. 403 )
इनसे अलग ठाकुर देशराज ने जाटों के अधीन गाँवों की कुल संख्या 2660 बताई है । डॉ. कर्णी सिंह (1974) लिखते हैं कि बीका राठोड़ से पहले राजस्थान के इस प्रदेश पर जाटों के सात गोत्रों के शक्तिशाली गणराज्य थे । (डॉ. कर्णी सिंह 1974, द जाट्स भाग 2, पृ. 250)
जाटों की इन शाखाओं के अलावा ठाकुर देशराज ने जाटों की कुछ अन्य शाखाओं और उनके राज्यों का उल्लेख किया है जिसमें सुहाग, भादू, भूकर, चाहर, जाखड़ और नैण मुख्य हैं। इस तरह इतिहासकारों द्वारा दी गयी संख्या में पर्याप्त अन्तर है । ऐसा लगता है की इन प्रमुख जाट पट्टियों में जाटों की दूसरी शाखाओं व अन्य जातियों के गाँव भी मिले हुए थे। कभी-कभी एक शाखा के गाँव एक स्थान पर न होकर अलग-अलग भी होते थे। जैसे सीधमुख तहसील राजगढ़ में कसवां जाटों का आधिपत्य था और चुरू तथा चुरू तहसील के अनेक गाँव पर भी उनका अधिकार था किन्तु इन दोनों स्थानों के बीच लुद्दी में पुनिया जाटों का तथा ददरेवा में चौहानों के ठिकाने थे इस तरह एक गाँव के विभिन्न भागों को विभिन्न जाट शाखाओं में जोड़ने से व अलग-अलग गिनने से जाट राज्यों के अधीन इन गाँवों की संख्या आई होगी। (गोविन्द अग्रवाल, पृ. 109-110 डॉ. पेमाराम, पृ. 29-30 ) ऐसा ही मेरा मानना है ।
जाट इतिहास लिखते समय उन जाट गोत्रों को छोड़ दिया गया जो नवगठित राजपूत क्षत्रिय वर्ग के किसी शासक संघ में सम्मिलित हो गए। ददरेवा के चौहान भी वास्तविक रूप में जाट ही थे जैसा कि बुरड़क इतिहास की खोज से स्पष्ट होता है। राजपूत शाखाओं से छीने गए तीन विभाग बागौर, ढ़ाण्डा (मोहिल ) एवं खारी पट्टी के अधीश्वर भी पूर्व में जाट ही थे । जो आबू पर्वत पर हुए यज्ञ के बाद राजपूत शाखा में सम्मिलित हो गए थे । कुछ राजपूत न होकर जाट ही रहे थे । ढ़ाण्डा ( मोहिल ) चन्द्रवंशी जाटवंश है । यह मैनें अनेक इतिहासों से अध्ययन करके तथा अन्वेषण करके जाना है।
ढ़ाण्डा, महलान, महलावत, महला, माहिल, मावलिया जाट वंश- दलीप सिंह अहलावत लिखते हैं:-
यह चन्द्रवंशी जाटवंश है जिसका प्राचीनकाल से शासन रहा है । ये चौहान शासक संघ में शामिल हो गए थे । रामायणकाल में इनका जनपद पाया जाता है। महाभारत भीष्मपर्व 9 - 48 के अनुसार माही और नर्मदा नदियों के बीच इनका जनपद था । यह जनपद गुजरात एवं मालवा की प्राचीन भूमि पर था। पं. भगवद्दत्त बी. ए. ने अपने' भारतवर्ष का इतिहास में इनके इस जनपद को इन्हीं दोनों नदियों के बीच का क्षेत्र लिखा है। टॉड और स्मिथ ने इस जनपद को सुजानगढ़ बीकानेर की प्राचीन भूमि पर अवस्थित लिखा है । जैमिनीय ब्राह्मण 1 151, बृहद्देवता 5-62, ऋक्सर्वानुक्रमणी 5 - 61 के अनुसार अर्चनाना, तुरन्त पुरुमीढ़ नामक तीन मन्त्रद्रष्टा- तत्त्वज्ञ कर्मकाण्डी माहेय ऋषियों का वर्णन मिलता है। (दलीप सिंह अहलावत, पृ. 250 )
मोहिल जाटवंश ने बीकानेर राज्य स्थापना से पूर्व छापर में जो बीकानेर से 70 मील पूर्व में है और सुजानगढ़ के उत्तर में द्रोणपुर में अपनी राजधानियां स्थापित की । इनकी 'राणा' पदवी थी। छापर नामक झील भी मोहिलों के राज्य में थी जहां काफी नमक बनता है। कर्नल जैम्स टॉड ने अपने इतिहास के पृ. 1126 खण्ड 2 में लिखा है कि मोहिल वंश का 140 गांवों पर शासन था। 140 गांवों के जिले (परगने ) - छापर ( मोहिलों की राजधानी), हीरासर, गोपालपुर चारवास, सोंदा, बीदासर लाडनू, मलसीसर, खरबूजाराकोट आदि । जोधा जी के पुत्र बीदा (बीका का भाई ) ने मोहिलों पर आक्रमण किया और उनके राज्य को जीत लिया। मोहिल लोग बहुत प्राचीनकाल से अपने राज्य में रहा करते थे । पृ. 1123. (दलीप सिंह अहलावत, पृ. 250 )
मोहिलों के अधीश्वर की यह भूमि माहिलवाटी कहलाती थी । जोधपुर के इतिहास के अनुसार राव जोधा जी राठौर ने माहिलवाटी पर आक्रमण कर दिया । राणा अजीत माहिल और राणा बछुराज माहिल और उनके 145 साथी इस युद्ध में मारे गये। राव जोधा जी राठौर की विजय हुई | उसी समय मोहिल फतेहपुर, झुंझुनू, भटनेर और मेवाड़ की ओर चले गये । नरवद माहिल ने दिल्ली के बादशाह बहलोल लोधी (1451- 89 ) से मदद मांगी। उधर जोधा जी के भाई कांधल के पुत्र बाघा के समर्थन का आश्वासन प्राप्त होने पर दिल्ली के बादशाह ने हिसार के सूबेदार सारंगखां को आदेश दिया कि वह माहिलों की मदद में द्रोणपुर पर आक्रमण कर दे । जोधपुर इतिहास के अनुसार कांधलपुत्र बाघा सभी गुप्त भेद जोधा जी को भेजता रहा। युद्ध होने पर 555 पठानों सहित सारंगखां परास्त हुआ और जोधा जी विजयी बने। कर्नल टॉड के अनुसार जोधा के पुत्र बीदा ने मोहिलवाटी पर विजय प्राप्त की। राव बीदा के पुत्र तेजसिंह ने इस विजय की स्मृतिस्वरूप बीदासर नामक नवीन राठौर राजधानी स्थापित की । तदन्तर यह 'मोहिलवाटी' बीदावत के नाम से प्रसिद्ध की गई। इस प्रदेश पर बीदावता राजपूतों का पूर्ण अधिकार हो गया । राजपूतों ने इस प्राचीनकालीन मोहिलवंश को अल्पकालीन चौहानवंश की शाखा लिखने का प्रयत्न किया। किन्तु इस वंश के जाट इस पराजय से बीकानेर को ही छोड़ गये। कुछ राजपूत भी बन गये । माहिलों की उरियल ( वर्तमान उरई - जालौन) नामक रियासत बुन्देलखण्ड में थी । आल्हा काव्य के चरितनायक आल्हा, उदल, मलखान की विजयगाथाओं से महलाभूपत के कारनामे उल्लेखनीय हैं। बिल्कुल झूठ को सत्य में और सत्य को असत्य में परिणत करने की कला में ये परम प्रवीण थे । जाट इतिहास उत्पत्ति और गौरव खण्ड पृ. 105 पर लेखक ठाकुर देशराज ने मलखान को वत्स गोत्र का जाट लिखा है । (दलीप सिंह अहलावत, पृ. 251 )
इस माहिल वंश के जाट राणा वैरसल के वंशज मेवाड़ में बस गये तथा शेष माहिल लोग पंजाब, हरयाणा, बृज, रुहेलखण्ड के विभिन्न जिलों में आबाद हो गये । भाषाभेद से इस वंश को कई नामों से पुकारा जाता है जैसे पंजाब में माहे - माहि-माहिय और बृज से मध्यप्रदेश तक महला-माहले तथा हरयाणा, यू. पी, में माहिल मोहिल, ढ़ाण्डा कहा जाता है।
राठोड़ राजाओं द्वारा बीकानेर संभाग के जाटों द्वारा शासित और स्थापित अनेक कस्बों के नाम बदलकर स्वयं के राजाओं और जागीरदारों के नाम से रख दिये गए। इससे इन कस्बों का पुराना इतिहास खोजने में कठिनाई आती है । इस प्रकार इस इलाके की ऐतिहासिक पहचान जाटों व किसानों के स्थान पर राठोड़ों द्वारा आबाद क्षेत्र के रूप में बदल गयी। कुछ स्थान/ इस प्रकार हैं: चूड़ेहर चूरू, अनूपगढ़, मोहिलवाटी, बीदावाटी, नेहरी, देशनोक, नेहरास्थान, बीकानेर, विशाला जाटी ढाणी, बिसाहू, बगोर, फतेहगढ़, भटनेर, हनुमानगढ़, रामनगर, गंगानगर, कोहलासर से रतनगढ़, घड़सीसर, सेठोलाव, किशनगढ़, कनियाणा, लालगढ़, लूद्दी, राजगढ़, लक्ष्मीनारायण, राजासर बीकान, बबेरा, रूपनगढ़, तेतरवाल की ढाणी, सालासर, पचारों की ढाणी, सरदारपुरा (राजगढ़), राजियासर, सरदारशहर, गुलेरियों की ढ़ाणी, सुजानगढ़, सोढल ? सुरतगढ़, रेणी, तारानगर आदि, अलवाणा, सरदारगढ़ (सूरतगढ़)। अन्य जाट गोत्रों के गणराज्य-उपरोक्त जाट गोत्रों की जानकारी अनुसंधान कर जुटाई गई है। गणेश बेरवाल (कामरेड मोहरसिंह, पृ. 2 ) ने लिखा है कि राजगढ़ के बारे में सरकारी गजट में अंकित है कि यह महान थार रेगिस्तान का गेट है, जहां से होकर दिल्ली से सिंध तक के काफिले गुजरते हैं। 1620 ई. के पहले यहाँ प्रजातांत्रिक गणों की व्यवस्था थी जिसमें भामू, डुडी, झाझड़िया, मलिक, पुनिया, राड़ व सर्वाग गणतांत्रिक शासक थे । जैतपुर पुनिया गाँव था जहां से झासल, भादरा (हनुमानगढ़) तक का बड़ा गण था। जिसका मुख्यालय सिधमुख था । गण में एक ही व्यक्ति सिपाही भी था और किसान भी । लड़ाई होने पर पूरा गण मिलकर लड़ता था ।
उपरोक्त के अलावा भी अनेक जाट गोत्र हैं जिनका इतिहास बीकानेर संभाग में अभी खोजा नहीं जा सका है। यह इन गोत्रों के बही भाटों से मिल सकता है। निम्न जाट गोत्रों ने गाँव बसाये हैं और उनमें उनकी जनसंख्या पर्याप्त है। नीचे उन कुछ गोत्रों की सूची दी जा रही है। साथ ही सुविधा के लिए जिस गाँव को बसाया है उसका नाम ब्रेकेट में दिया गया है। संभावित जाट गोत्र जिनके इतिहास की खोज की आवश्यकता है वे हैं-
बीकानेर जिला :- बाना (बाना गाँव डूंगरगढ), चोटिया (धीरदेसर चोटियान), महिया (दुलचासर), तरड़ (जसरासर ), झींझा (झंझेऊ), मूंड (मूंडसर), उत्पल (पलाना), हुड्डा (राजपुरा हुड्डान), गंगानगर जिला :- नोजल (छप्पनवाली), न्योल (रामपुरा न्योला), ताखर (ताखरावाली),
हनुमानगढ़ जिला :- ढाका ( ढाका गाँव), खोथ (खोथावाली), मोठसरा (मोठसरां), थालोड़ (थालड़का),
चूरू जिला :- भींचर ( भींचरी), भामू ( भामासी, चाँदगोठी, ढढेरू भामूवान), जान्दू ( जान्दवा), पड़िहार (पड़िहारा ), पोटलिया ( पोटी), न्योल (सातड़ा), डूडी (सीतसर), झाझड़िया, राड़ सर्वाग आदि ।
ढ़ाण्डा (माहिलों) का राजस्थान से निकास
विशेषतः सामान्य रूप से बहुतेरे जाटों का निकास राजस्थान से माना जाता है । ढ़ाण्डा क्षत्रिय लोग भी पुरपाटन (राजस्थान) नजदीक कोटपुतली से जाटों के परस्पर संघर्ष एवं फूट का शिकार होने पर चम्बल के किनारे से दिनारपुर ( टोण्ड) होते हुए दिल्ली में प्रविष्ट हुए । सर्वप्रथम दिल्ली के फतेहपुर से महरौली, पहाड़गंज, मदनगिर में आबाद हुए। तत्पश्चाद् दिल्ली से कुछ वंशज अल्पकाल के लिए माण्डोठी (रोहतक) में आबाद रहकर भिन्न-भिन्न स्थानों भिवानी आदि से होते हुए धनौरी गांव जिला जीन्द में बस गए। माण्डोठी आवास के दौरान तीन मशहूर पहलवान हुए हैं जिनके नाम आज भी स्वर्णाक्षरों में अंकित हैं। उनके नाम श्री पृथ्वी सिंह ढ़ाण्डा, काला ढ़ाण्डा व सुरेन्द्र ढ़ाण्डा नाम बताये जाते हैं। लेकिन आज कोई भी ढ़ाण्डा गोत्र का घर इस गांव में नहीं है । महले रावत के वंशजों (भिवानी नारायण, दिनार, महिपत) आदि ने भिन्न-2 कालों में भिन्न-2 गांव आबाद किये। भवानी ने भिवानी बसाई जो महलान राजपूत कहलाये । नारायण ने नारायणा बसाया जो रबे राजपूत कहलाये । महीपत के वंशजों ने बल्लबगढ़ ( गुड़गांव) बसाया । दिनार की औलाद किरता, मॉडर व लाडम आदि फतेहपुर में जा बसे । फतेपुर महरोली, मदनगिर ( जय जय कॉलोनी दिल्ली ) में आज भी इनके वंशज आबाद हैं। ढ़ाण्डा के अन्तिम राजा जय सिंह की हिन्दू रानी के वंशज पहाड़गंज में आज भी आबाद हैं। स्मरण रहे कि ढ़ाण्डा वंशज जय सिंह की तेरह रानियां थी । तेरहवीं रानी मुसलमान थी । उसका नाम सुखदेव बानू था । वह सिंध प्रान्त की रहने वाली थी । भाटों के वृत्त के अनुसार सुखदेव बानूं भादों खां की पीरोज खां की लूणखां की पड़पोती थी । जोहियाणी रानी के पांच पुत्र हुए। उसकी सन्तान मुसलमान मोहिल कहलाई जो आज भी छापर, सुजागढ़, लाडनूं नागौर एवं अन्य शहरों में मौजूद हैं। ये लोग हिन्दुओं और मुसलमानों के रीति-रिवाज मानते हैं। भाटों के विवरण अनुसार जय सिंह जब अकबर बादशाह के साथ युद्ध में मारा गया तो मुसलमान वंश की आदर्श पत्नी जोहियाणी जय सिंह के साथ ही सती हुई थी । यह घटना वि. सं. 1604 के आसपास की है। ऐसा भी सुना जाता है कि जय सिंह के पुत्रों ने अन्य स्थानों पर शासन किया। मुसलमान ढ़ाण्डा (मोहिलों) का मानना है कि जोहियाणी से विवाह के बाद जय सिंह ने इस्लाम धर्म ग्रहण कर लिया था। लेकिन यह धारणा गलत प्रतीत होती है क्योंकि जय सिंह का दाह संस्कार किया गया था। जोहियाणी सती हुई थी । यदि जय सिंह मुसलमान होते तो दाह संस्कार नहीं होता। जोहियाणी की सन्तान मुसलमान कहलाई जो आज भी कई स्थानों पर आबाद हैं। ये लोग आज भी हिन्दुओं और मुसलमानों के रीति रिवाजों को मानते हैं। मांडर के महले रोड़ मोहाना (सोनीपत) में बसे । लाडम के सिर और मुक्ते दो पुत्र हुए । शिसर का महीपाल और महीपाल का वीरसाल, वीरसाल का निम्बर, निम्बर का जमना, जमना का गनियर ने धनौरी से आकर बरहा गांव (सुन्दरपुर) आबाद किया । गनियर के बेटे उमरी, जालू, सुरजा, किरता, फेरी, कौरा, रामराज, कुण्ठा, झण्डू आदि हुए। जिन्होंने भिन्न-भिन्न गांव आबाद किये। जिनका उन गांवों के इतिहास में संक्षिप्त वर्णन किया जाएगा। यह प्रमाण बहि भाटों के लेखानुसार वर्णित है । ढ़ाण्डा गोत्र के गांवों की जानकारी जिलानुसार अगले अध्याय में दी गई है। लेखक का प्रयास है कि यदि किसी गांव में ढ़ाण्डा गोत्र का एक दो परिवार भी है उसका विवरण भी दिया गया है।