इतिहास देश और जातियों के उत्थान और पतन का दर्पण है । समाज के निर्माण, उत्थान और विकास में इतिहास की अहम् भूमिका होती है । ऐतिहासिक तथ्यों की खोज अत्यंत दुसाध्य और खर्चीला कार्य है और यह कार्य उन परिस्थितियों में और भी दुष्कर हो जाता है जबकि विभिन्न कालों से सम्बन्धित जानकारी उपलब्ध न हो तथा जैसी कि जाट परम्परा रही है, ऐतिहासिक जानकारी अभिलेखित नहीं की गई हो । जब कोई समुदाय नेता विहीन होता है तो इतिहास ही राह दिखाता है और आगे बढ़ने की प्रेरणा देता है । दुर्भाग्य से अब तक इस कौम के इतिहास को सही ढंग से उजागर नहीं किया गया। समाज का मनोबल ऊँचा करने के लिये हर समाज का तथ्यपरक सन्तुलित इतिहास का होना और इसकी जानकारी समाज को होना आवश्यक है | मुगलों के लगातार आक्रमण और लम्बे समय तक राज करने से भारतीय इतिहास में असन्तुलन पैदा हो गया। समाज वैज्ञानिक कहते हैं कि किसी कौम को समाप्त करना है तो उसके इतिहास को लुप्त करा दो। वह कौम स्वयं ही समाप्त हो जायेगी ।
जाटों का इतिहास अत्यंत शानदार रहा है । जाट समाज के हर सदस्य को चाहिए कि जाट इतिहास पढ़ें समझें और अन्य भाइयों को भी बतावें । हम स्कूल कोलेजों में आक्रांताओं का इतिहास पढ़ते हैं, समाज शोषक राजाओं का दृढ़ता से सामना करने वाले देशभक्त जाटों का इतिहास पाठ्यपुस्तकों में नहीं पढ़ने को मिलता । यदि पाठ्य पुस्तकों में कहीं जाट शब्द आता है तो केवल इतना आता है कि जाट एक विद्रोही जाति रही है । जाटों ने विद्रोह हमेशा शासक की गलत नीतियों के विरुद्ध किया है । जाट इतिहास लिखने के प्रयास निश्चय ही सफल होंगे और जाट समाज के प्रति भरी गई दुराग्रह की भावना दूर होगी। समग्र जाट इतिहास लेखन से सही तस्वीर धीरे-धीरे सामने आ रही है। समाज के लिए खुशी की बात है कि पुस्तकों में यह समावेश हो चुका है कि गुप्त सम्राट धारण गोत्र के जाट थे । (देखें - भारत का इतिहास -कुलदीपराज दीपक, अध्याय - 12 कक्षा - 11)
" प्रत्येक जाति का भविष्य उसके भूत में सन्निविष्ट है । " इस लोकोक्ति में ऐसी सत्यता विद्यमान है कि जिस पर प्रत्येक मनुस्य को ध्यानपूर्वक मनन करना चाहिए। वह जाति जो उन्नति के क्षेत्र में कुछ करके दिखलाना चाहती है, उसके प्रत्येक व्यक्ति के लिए आवश्यक है कि भूतकाल के अपने पुरूषाओं की कार्यावलियों की वह भलीभान्ति मनोयोग से पाठ करे, क्योंकि जिस जाति को अपने भूत का सम्यक् ज्ञान नहीं है, उसे अपने आने वाले काल में उन्नति का पथ बड़ा संकटाकीर्ण दिखाई देगा। जाट संघ जो आज जाति कहलाता है एक प्राचीन ही नहीं किन्तु प्राचीनतम आर्य नस्ल है । इस आर्य जाति के भूत में ऐसी ऐतिहासिक घटनाएँ हो चुकी हैं जिन्होंने उसके नाम को सर्वदा के लिए अमर कर दिया है। किन्तु खेद है, इन सब बातों के होते हुए भी इस श्रेष्ठतम जाति का कोई श्रृंखलाबद्ध इतिहास उपस्थित नहीं । अब कुछ चुनिन्दा इतिहासकार इस ओर गम्भीर हैं जो अपनी लेखनी से प्रामाणिक इतिहास लिख रहे हैं।
मेरा अपना मन्तव्य है कि जाटों को भारतीय पौराणिक ग्रन्थों में वर्णित चारों वर्णों में कोई स्थान नहीं मिला इसलिए ये एक अलग ही पहचान रखते हैं। इनकी चेहरे की बनावट, शारीरिक बनावट और क्षमता, त्वचा के रंग, रीतिरिवाज और शारीरिक हाव-भाव ही इनका इतिहास और इनके मूल स्थान का ब्यौरा देने के लिए काफी हैं। जीन्स और डी. एन. ए के आधार पर जाटों को दक्षिणी रूस से लेकर ईरान- ईराक तक परिभाषित किया जा सकता है। इसलिए जाट एक नस्ल है, जाति नहीं । जाटों की उत्पत्ति विषयक प्रश्न से पूर्व इतिहास क्या है ? क्षेत्रीय इतिहास लेखन का महत्त्व विचारणीय है।
अच्छी किताब और सच्चे दोस्त तुरन्त समझ में नहीं आते। इतिहास क्या है ?
संसार भर के प्रसिद्ध इतिहासकारों ने इतिहास को लिखने के अपने-अपने तरीके प्रस्तुत किये हैं । विश्वविख्यात और प्रबुद्ध विचारकों ने इतिहास पर अपनी-अपनी आलोचनात्मक टिप्पणियाँ देकर इस विषय के कार्य क्षेत्र को काफी विस्तृत रूप दिया है। इतिहास के विराट रूप का पूरा लेखा-जोखा यहाँ देना कठिन भी है और अप्रासंगिक भी। इसलिए इतिहास का अति सरल रूप लोगों के सामने उनकी समझ और अनुसरण हेतु संक्षिप्ततः प्रस्तुत किया जाता है कि -" इतिहास साहित्य की उस शाखा का नाम है जिसके पठन से मनुष्य किसी जाति (nation) के पुरूषाओं के वृत्तान्त अर्थात् उनकी उन्नति और अवनति, उनकी चेष्टा और शिथिलता, उनकी भूलें और चतुराइयाँ तथा उनके सुखों और दुःखों का पूरा-पूरा ज्ञान प्राप्त कर सके। इसलिए सामान्यतः इतिहास वह खेल का मैदान है जो बुद्धि के अनुशासन का अभ्यास कराता है । इतिहास ज्ञान की वह शाखा है जो मनुष्य के भूतकाल इसकी संस्थाओं और उनकी पारस्परिक क्रिया से सम्बन्धित है ।
इतिहास पढ़ने के लाभ :- संक्षेप से इतिहास पढ़ने के लाभ हैं कि इससे स्वजाति और स्वदेशहित के भावों का प्रादुर्भूत होना, देश में दुर्गुणों का नाश और सद्गुणों के प्रचार का प्रयत्न, जाति के लिए सब प्रकार की उन्नति के मार्गों का सुगम होना और दूसरों के अनुभव से अपने जीवन संग्राम में सहायता ले सकना ।
इतिहास लेखन का महत्त्व:- इतिहास प्रवृत्ति मनुष्य की प्रकृति में गहरी है। इसका तात्पर्य और महत्त्व इसलिए अत्यधिक है क्योंकि यह एक वैयक्तिक अनुभव है। अतीत कभी भी इसकी वास्तविकता में पुनर्जीवित नहीं हो सकता। इसका वास्तविक रूप एक वस्तुगत सच्चाई के संश्लेषण, बुद्धिसंगत विश्लेषण और कल्पना शक्ति युक्त धारणा के द्वारा प्राप्त कर लेखन के माध्यम से लोगों के सामने लाया जाता है। परिप्रेक्ष्य का अभाव या बदलाव हमारे भूत के दृष्टिकोण को बदल देता है और हर युग भूत के सम्बन्ध में इसकी अपनी छवि और प्रणाली अपनायेगा | इतिहास की प्रासंगिकता जीवन पर्यन्त शिक्षा के लिए चिरस्थायी और अक्षय है । इतिहास भूलने वाली कौम का कोई भी भविष्य नहीं होता । अतः इतिहास लेखन समाज के जीवन की गति के लिए अनिवार्य है । इतिहास मानवता की प्रगति के अभिलेख का बेरोमीटर है।
इतिहास का अध्ययन दूर के अद्भुत देशों की सैर कराता है। शेर के समान यह हमें संकुचित और जीवन की प्रतिदिन की घटनाओं से बाहर ले जाता है। यह हमारे सामने सदियों से मनुष्य की यात्रा की जोशीली तस्वीर रखता है। इतिहास मनुष्यों के समूहों के कार्यकलाप हमारे सामने रखता है । यह हमें प्रेरणा देता है कि हम उनसे एक अच्छा जीवन बिताएँ । यह मानव समाज की कला और साहित्य, दर्शन और धर्म, उत्साही कार्य और प्रशासन, संस्कृति और सभ्यता आदि की कहानी प्रस्तुत करता है ।
मेरा अपना मन्तव्य है कि हम भारत का वास्तविक इतिहास तब तक नहीं समझ सकते जब तक कि हम विस्तृत क्षेत्रीय अध्ययन जो भिन्न-भिन्न धार्मिक, आर्थिक और सामाजिक विश्लेषण, समाज में जातीय वर्ग, आर्थिक और जातियों के राजनैतिक जीवन के आधार पर विस्तृत अध्ययन नहीं करते हैं। इस प्रकार राष्ट्रीय इतिहास के पुनर्निर्माण के लिए क्षेत्रीय इतिहास वास्तविक आधार और बुनियाद है।
मानव इतिहास के लिए चाहे राष्ट्रीय हो या क्षेत्रीय, सभी कोणों से सामाजिक और सांस्कृतिक, धार्मिक और नैतिक, आर्थिक और राजनैतिक, जन सांख्यिकी और परिस्थिति, विज्ञान का गहन अध्ययन करना पड़ता है। इतिहास केवल लड़ाइयाँ, कारनामों और महापुरुषों तथा औरतों की उपलब्धियों की परिस्थिति - विज्ञान आदि के अभिलेखों से सन्तुष्ट नहीं हो सकता बल्कि यह जन समूहों का, वर्णित घटनाओं, उनकी प्रवृत्तियों और आकाक्षाओं के पीछे सक्रिय और निष्क्रिय, चुपके से और अनाम रूप से अदा की गई भूमिका आदि का भी ध्यान रखता है। इसलिए आधुनिक इतिहासकार को आदमियों और घटनाओं, लोकाचार, कानूनों और मानव इतिहास के ढाँचों और उनके अस्तित्व के मध्य रहकर गूढ़ लिपि का अर्थ निकालना चाहिए। इसी तर्ज पर हमने आने वाली पीढ़ियों के लिए सम्मान सूचक विरासत तथा योगदान का काम पुस्तक रूप में, इतिहास - रूप में किया है।
इतिहास केवल भोगा हुआ सच ही नहीं, वर्तमान का बुलन्द आधार और भविष्य का बीजारोपण भी है । अतीत की बुनियाद पर ही वर्तमान की दीवार और भविष्य का महल खड़ा होता है ।
इतिहास का प्रयोजन केवल तथ्यों और तिथियों को प्रस्तुत कर देना ही नहीं है । अतीत में क्या हुआ और क्या नहीं हुआ यह जानना निश्चय ही महत्वपूर्ण है। मगर उससे भी अधिक महत्वपूर्ण है यह जानना कि ऐसा ही क्यों हुआ और भिन्न प्रकार से क्यों नहीं हुआ । इतिहास के लिए इस क्यों का विशेष महत्त्व है ।
"It is said that" if an old man dies a library is Brunt' that is the severity of loss to knowledge to all of us and the future generation. If we do not document and utilize the knowledge of the elders from the informed sector.
उपरोक्त इस अंग्रेजी कहावत का मूल भावार्थ यह है कि अपने पूर्वजों के उनके जीवन काल में अर्जित अनुभव व ज्ञान को उनकी मृत्यु से पूर्व लिपिबद्ध कर लेना चाहिए जो वर्तमान व भविष्य की पीढ़ियों के लिए प्रेरणा स्रोत होगा अन्यथा हम उससे वंचित रह जायेंगे जो अतुल्य नुकसान होगा ।
इतिहास में फरवरी, 1865 इकलौता ऐसा महीना है जिसमें कोई पूर्णमासी नहीं थी । जाटों की उत्पत्ति
वास्तव में यह इतिहास का विरोधाभास भी है और एक विडम्बना भी कि जाटों का एक बहादुर किसान वर्ग " अपने देश का गौरव " निष्कपट, स्पष्टवादी और विनोदी, भोलेपन से युक्त अपनी बहादुरी के लिए जाना जाता है लेकिन उनकी उत्पत्ति के रहस्य पर पर्दा डला हुआ है । वैसे निर्णायक रूप से किसी जाति की उत्पत्ति को किसी लिखित अभिलेख और अकाट्य प्रमाण के बिना ढूंढना हमेशा कठिन है । यद्यपि यह काम बड़े धैर्य, परिश्रम और दृढ़ निश्चय का है। मनुष्य को अपने अध्ययन को ठोस अनुमानों और निष्कर्षों पर आधारित करना पड़ेगा । फिर भी वह प्रायः अस्थायी अथवा प्रायोगिक ही बना रहेगा। अब केवल विविध सिद्धान्तों की एक आलोचनात्मक खोजबीन को समझना है जो उनकी उत्पत्ति के रहस्य के समाधान की ओर ले जाती है।
जाट, एक जनजाति के रूप में पाकिस्तान में और भारतवर्ष के उत्तरीय राज्यों में कृषक जाति के प्रधान भाग को बनाती है। उनका मुख्य पेशा जमीन का जोतना और पशु-पालन का रहा है, यह एक लिखित इतिहास की सत्यता है। यह भी सनातन सत्य है कि जाटों ने अपनी वैभवशाली परम्परा एवं वीरोचित कार्यों से इतिहास के कुछ पृष्ठों पर साधिकार आधिपत्य किया है। जाट सदैव शौर्य एवं वीरता के प्रतीक रहे हैं । इनकी उत्पत्ति के बारे में इतिहास और इतिहासकारों में परस्पर मत वैभिन्य है परन्तु मतान्तर और मतैक्य दोनों ही शोध को एक अभिनव दृष्टि प्रदान करते हैं।
जाटों की उत्पत्ति के विषय में पौराणिक कथाकारों, उनके जागाओं ( प्रशस्तिकारों ) धार्मिक ग्रन्थकारों तथा विभिन्न भारतीय और विदेशी इतिहासकारों ने अपने मत दिये हैं । जाटों की उत्पत्ति का विषय विद्वानों द्वारा अत्यन्त विवादास्पद बना दिया गया है । जाटों की उत्पत्ति विषयक अध्ययन करने से हमें तीन विभिन्न विचारधाराओं का प्रतिपादन मिलता है-
(1) विदेशी उत्पत्ति का सिद्धान्त (2) देशी उत्पत्ति का सिद्धान्त
(3) अन्य सिद्धान्त (पौराणिक कथाओं के आधार पर)
(1) विदेशी उत्पत्ति का सिद्धान्तः- विदेशी उत्पत्ति के सिद्धान्त को मानने वाले इतिहासकार 'जाट जाति' को विदेशी मानते हैं । उनके अनुसार समय-समय पर शक, सिथियन, तुरष्क, कुशान, तातार आदि विदेशी विजेता जाति समूह भारत में आकर आबाद हुए, परन्तु आज उनका कोई पृथक् अस्तित्व नहीं है । इसलिए भारत की जातियों में कुछ जातियाँ ऐसी होनी चाहिएं जो आर्यों के अतिरिक्त किसी दूसरे वंश की उत्पत्ति हैं। इसी आधार पर कुछ इतिहासकारों ने जाटों को शक, सिथियन और हूण आदि जातियों का उत्तराधिकारी साबित करने का प्रयत्न किया है।
विदेशी इतिहासकारों में प्रमुख रूप से स्मिथ ने जाटों को हूणों की सन्तान निरूपित किया है। इनके अनुसार “विजेता हूणों में से जिनके पास राजशक्ति आ गई वे राजपूत, जो कृषि कार्य करने लगे वे जाट और गुर्जर हैं ।'' (प्रमाण- देशराज जघीना जाट इतिहास प्रथम संस्करण 1934 पृष्ठ 56 ) भारतीय विद्वानों में सर यदुनाथ सरकार ने प्रमुख रूप से जाटों के विदेशी उत्पत्ति के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है। उन्होंने जाटों को 'सीथो आर्यन' कुनबे से सम्बन्धित किया है। (प्रमाण - यदुनाथ सरकार - फाल ऑफ दी मुगल अंपायर खण्ड -2 पृष्ठ 306 ) विदेशी नामों में "जाट " जैसे शब्द मिलते हैं, यूरोप में जैसे गाथ, गेटी, जेटी । चीन में यूची, यूली ऐसे नाम हैं जो स्वर में जाट शब्द के समतुल्य हैं। ऐसे शब्दों की समानता का आधार देखकर इतिहासकारों ने जाटों को मंगोलियन और सिथियनों का उत्तराधिकारी बताया है। उक्त मत का उल्लेख उपेन्द्रनाथ शर्मा द्वारा लिखित "जाटों का नवीन इतिहास' में भी मिलता है। उन्होंने अपनी पुस्तक में कई इतिहासकारों का उद्धरण देते हुए लिखा है कि-
भारतीय सीमाओं का भौगोलिक अंग होने के बाद भी भारतीय आर्य जाति के प्रतिनिधियों के शासकीय (सिन्धु पंचनद प्रदेश ) में जाकर बसने के कारण ही विदेशी शक अथवा इण्डो - सिथियन ( भारतीय शक ) प्रमाणित करने का प्रयास किया गया है। " ( प्रमाण - उपेन्द्रनाथ शर्मा - जाटों का नवीन इतिहास प्रथम संस्करण 1977 पृष्ठ - 1)
विदेशी सिद्धान्त की आलोचना :-
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विदेशी इतिहासकारों ने जिनमें सर हेनरी इलियट प्रमुख हैं, उन्होंने इसके अतिरिक्त जातियों की पहचान के लिए कई साधन निकाले हैं।
इनमें से दो मुख्य हैं-
(1) शारीरिक बनावट (2) भाषा विज्ञान
शरीर - शास्त्र के साधनों से अन्वेषकों ने मनुष्य जाति को पाँच भागों में विभक्त कर दिया है- (1) आर्य (2) मंगोलियन (3) मलय (4) हबशी (5) अमेरिकन ( प्रमाण देखें - देशराज जघीना जाट इतिहास पृष्ट - 59 ) जौन सेमूर लेखक राऊण्ड अबाऊट इण्डिया)
जाटों की संरचना को अन्य विदेशी जातियों से मिलाते हुए कई इतिहासकारों ने इन्हें विदेशी स्वीकार किया है परन्तु शोध में प्रगति के साथ पूर्ववर्ती प्रजातियों की धारणाओं तथा नृतत्त्वशास्त्रीय विधियों में पर्याप्त परिवर्तन हुआ है। जो तथ्य पूर्व में सिद्ध किये जा चुके थे अब उनके सम्बन्ध में इन नई विधियों के कारण नई शंकाएँ उत्पन्न हुई हैं। आर्यन तथा सिथियन को जाट जाति" से सम्बन्धित करने वाला दृष्टिकोण अब पर्याप्त आलोचित हो रहा है।
मानव संरचना एवं भाषा विज्ञान के अनुसार जातियों को पहचानने की जो व्यवस्था है, इसके अनुसार भी जाट आर्य ही नजर आते हैं। सर हेनरी एम. इलियट ने " डिस्ट्रीब्यूशन ऑफ दी रेसेज ऑफ दी नार्थ वेस्टर्न प्रॉविन्सेज ऑफ इण्डिया" में कहा है कि - "करांची से पेशावर तक जाट शेष जातियों से पृथक् नहीं हैं, भाषा से जो अर्थ निकाला गया है वह उनके आर्य होने के पक्ष में एक जोरदार तर्क है। यदि वे सिथियन हैं तो सिथियन भाषा कहां लुप्त हो गई ? चूँकि इस क्षेत्र में जाटों की भाषा में किसी भी प्रकार सिथियन होने का प्रमाण नहीं मिलता । ( प्रमाण देशराज जघीना जाट इतिहास पृष्ठ - 62 )
(2) देशी उत्पत्ति का सिद्धान्त :-
भारतीय एवं कई विदेशी इतिहासकारों ने जाटों की देशी उत्पत्ति को एक स्वर से स्वीकारा है | कई विदेशी इतिहासकारों ने इस बात को स्वीकार किया है कि जाट मूलतः भारतीय हैं, परन्तु उत्पत्ति के विषय में अपने अलग-अलग मत प्रतिपादित किए हैं।
इतिहासकार रिसले के शब्दों में :- "यह कृषि पर आधारित जातिगत समूह अपनी बहादुरी और नृतत्त्वशास्त्र के अनुसार भारतीय राजपूत, क्षत्रिय एवं जाट एक ही समूहों के अंग लगते हैं। इन सारे समूहों की उत्पत्ति परम्परागत आर्य उपनिवेशों के मध्य ही हुई होगी। उनकी शारीरिक संरचना जैसे-ऊँचाई, गोरा रंग, काली आँखें, बालों की बहुलता, यह सारे लक्षण उन्हें आर्यों के निकट ही ले जाते हैं। ''रिसले ने जाट और राजपूतों को वैदिक आर्यों का सही प्रतिनिधि माना है।'' ( प्रमाण देखें- कालिका रंजन कानूनगो - हिस्ट्री ऑफ दी जाटस, पृष्ठ-2 ) इसी प्रकार डॉ. ट्रम्प और जे. बीम्स, जाटों को शुद्ध भारतीय आर्य मानते हैं जो कि इनके शारीरिक गठन और भाषा से ज्ञात होता है । (प्रमाण - देशराज जघीना जाट इतिहास पृष्ठ- 62 ) भारतीय इतिहासकार सी.वी. वैद्य ने जाटों को महाभारत के "जरित्का" के साथ सम्बन्धित किया है । इस महाकाव्य में 'जरित्कों' को साकल क्षेत्र में निवास करने वाला बताया है। महाभारत के कर्ण पर्व में जर्ता (जरित्का) नामक जाति का उल्लेख मिलता है। श्री वैद्य के अनुसार यह जाटों की ओर इंगित करता है ।
(प्रमाण - उपेन्द्रनाथ शर्मा जाटों का इतिहास पृष्ठ - 2 )
इसी प्रकार जाट इतिहासकार श्री रामलाल ने नामों की समानता के आधार पर अपना मत उत्पत्ति के सम्बन्ध में दिया है, उनका दृष्टिकोण है कि " सम्राट यट की मृत्यु के बाद यादव वंश को जाट कहा जाने लगा। (प्रमाण-गिरीशचन्द्र द्विवेदी- जनरल ऑफ इण्डियन हिस्ट्री खण्ड 48 पृष्ठ 378 )
कर्नल जेम्स टॉड जिन्होंने "टॉड राजस्थान" नामक इतिहास लिखा वे कहते हैं कि - " आज के जाटों को देखकर अनायास ही यह विश्वास नहीं होता कि ये जाट उन्हीं प्रचण्ड वीरों के वंशज हैं जिन्होंने एक दिन आधे एशिया और यूरोप को हिला दिया था । " मि. एफ. एस. यंग अंग्रेज लेखक कहता है कि- " जाट सच्चे क्षत्रिय हैं, हमने जर्मन महायुद्ध में उनके क्षत्रियत्व को भलीभान्ति परख लिया है। ये मैदान में मरना जानते हैं, कारण इनकी सेना को ब्रिटिश साम्राज्य ने “रायल" की उपाधि दी थी। मैं यह समझता हूँ कि जाट बहादुरी के साथ-साथ सच्चे ईमानदार भी होते हैं । जाट महान लेखक महेन्द्रकुमार शास्त्री के अनुसार - " महाराजा महादेव जटी कैलाशवासी थे । उनके पुत्र गणेश विनायक जी के गण, खाप, पाल के रूप में आज भी जाट विद्यमान हैं। प्राय: जाट जहाँ रहते हैं, वहाँ-वहाँ खापों में बसे ग्रामों में हैं। अन्य किसी जाति में इस रूप में रहने की पद्धति नहीं है ।
सिक्खों के इतिहास के लेखक जोजेफ डेवीकनिंघम ने लिखा है कि-उत्तर और पश्चिम भारत के जाट बड़े परिश्रमी और सफल कृषक हैं। वे खेती करने और शस्त्र चलाने में एक जैसे निपुण हैं। भारत की ग्रामीण आबादी में जाट सबसे श्रेष्ठ नागरिक हैं।
"डिस्कवरी ऑफ इण्डिया" के लेखक पं. जवाहरलाल नेहरू प्रधानमन्त्री भारत ने लिखा है कि- मैं यू. पी. प्रान्त के उत्तरी तथा पश्चिमी जिलों के प्रबल जाटों के बारे में जानता हूँ। वे मातृभूमि के आदर्श पुत्र, बहादुर,स्वतन्त्र स्वभाव वाले तथा बहुत उन्नतिशील हैं।
श्री लाल बहादुर शास्त्री प्रधानमन्त्री भारत सरकार ने कहा था कि- "जय जवान जय किसान " उनका संकेत जाटों की देशभक्ति के लिए ही
था।
"जनरल ऑफ इण्डियन हिस्ट्री" लेखक श्री जी. सी. द्विवेदी ने लिखा है कि वे ऊँचे कद वाले, गठीले, बहादुर, परिश्रमी, रोबीले, सुन्दर शुद्ध एवं शेखी न मारने वाले, हठी और दृढ़ होते हैं। ये सामान्य विशेषताएँ सभी जाटों में हैं। पं. मदनमोहन मालवीय के शब्दों में- जाट भारतीय राष्ट्र की रीढ़ हैं । भारत माँ को इस साहसी वीर जाति से बहुत बड़ी आशाएँ हैं ।
जस्टिस कैम्पबेल - जाटों से राजपूत बने परन्तु राजपूतों से एक भी जाट वंश प्रचलित नहीं हुआ ।
राजस्थान के राजवंशों का इतिहास लेखक जगदीश सिंह गहलोत ने लिखा है यदि राजपूत अपनी वीरता व साहस के लिए प्रसिद्ध हैं तो जाट उनसे किसी भी भान्ति कम नहीं हैं। जाट जाति सम्पूर्णतया भारतीय एवं आर्य है। तवारीख राजस्थान उर्दू के लेखक इतिहासकार भाई परमानन्द -" हैहय शाखा (यादवों की एक शाखा ) से उत्पन्न जात या सुजात प्रशाखा से जाट शब्द की उत्पत्ति मानते हैं ।
लेफ्टिनेंट रामस्वरूप जून जाट इतिहास में लिखते हैं कि - "जाट गोत्र के लोग ययाति वंशी हैं। जौन सेमूर लेखक “राऊण्ड अबाऊट इण्डिया में लिखते हैं कि -" जाट केवल एक हिन्दू जाति ही नहीं वास्तव में एक नस्ल है । "
जाट इतिहास समकालीन सन्दर्भ के लेखक स्व. प्रताप सिंह शास्त्री व जाट गोत्रावली के लेखक महीपाल आर्य लिखते हैं कि -" आर्यों के वंशधर आज के जाट हैं । सृष्टि से लेकर महाभारत काल पर्यन्त आर्यों का चक्रवर्ती शासन रहा। आर्य सारे विश्व पर छाये रहे। जब वर्ण व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो गई और लोग वेद विद्या से विमुख हो गये तब जात-पात का सिलसिला आरम्भ हुआ। अतः जाट शब्द समूहवाची है। जिसके द्वारा या जिसमें बिखरी हुई शक्तियाँ एकत्र हो जाएँ। ऐसे संघ व जाति और प्रत्येक व्यक्ति को जट या जाट कहते हैं। पाणिनी से पूर्व यह शब्द केवल संघ के लिए ही प्रयोग होता था जाति के लिए नहीं ।
जाटों की उत्पत्ति के विषय में मेरा अपना मत भी प्रसिद्ध वैयाकरणाचार्य पाणिनी के सूत्र "जट झट संघाते " आल जाटचौ से मेल खाता है जिसका आशय संघ से है। कालिका रंजन कानूनगो " हिस्ट्री ऑफ द जाट्स" पृष्ठ 18-23 पर उद्धृत करते हैं कि -" महाभारत के युद्ध के बाद राजसूय यज्ञ के समय पर भारतवर्ष के सभी राजाओं ने महाराजा युधिष्ठिर को ज्येष्ठ की पदवी दी थी उन्हीं के वंश के लोग ज्येष्ठ से जाट कहलाने लगे ।
पण्डित इन्द्र विद्यावाचस्पति का कहना है कि - " जाट जाति के दो बड़े गुण हैं
—
- एक तो वह किसी एक सत्ता को देर तक सिर झुकाकर नहीं मान सकते और दूसरा यह कि वह धार्मिक या सामाजिक रूढ़ियों की अत्यन्त दासता से घबराते हैं। इन्हीं गुणों का प्रभाव था कि वह सात सौ वर्षों तक मुसलमानों के शासन में रहे परन्तु रहे प्राय: विद्रोही बनकर ही । यह एक वीर जाति के लक्षण हैं । इन दो गुणों के साथ एक दोष भी लगा हुआ है जो शायद उपर्युक्त गुणों का भाई है । जाट लोगों में एक खुरदरापन है, जो बिगड़ने पर परस्पर विरोध के रूप में परिणत हो जाता है। यदि यह एक दोष न होता तो दोनों के बल से जाट भारत के एकछत्र राजा होते ।
"
महाराजा महेन्द्र प्रताप सिंह का कहना था कि - " मुझे इस बात का भारी अभिमान है कि मेरा जन्म जाट क्षत्रिय जाति में हुआ है, हमारे पूर्वजों ने कर्त्तव्य धर्म के नाम पर मरना सीखा था और इसी बात के पीछे अब तक हमारा सिर ऊँचा है । " ए. एच. बिंगले का कथन है कि -" जाट शब्द की व्याख्या करने की आवश्यकता नहीं है। यह ऋग्वेद, पुराण और मनुस्मृति आदि अत्यन्त प्राचीन ग्रन्थों से स्वतः सिद्ध है। इसकी परिभाषा की भी आवश्यकता नहीं । यह तो वह वृक्ष है, जिससे समय-समय पर जातियों की उत्पत्ति हुई । "
महर्षि दयानन्द सरस्वती ने अपने अमर ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश में जाटों के बारे में लिखा है कि जब जाट जी जैसे योग्य पुरुष हों तो संसार में पोपलीला न चले ।
वस्तुतः जाट सरलता पसन्द है । उसमें कृत्रिमता को स्थान नहीं । उसमें भोलापन भी है । जाटों में आज भी एक अल्हड़पन से युक्त वीरता और भोलेपन में मिश्रित उद्दण्डता विद्यमान है। उन्हें प्रेम से वश में लाना जितना सरल है, आँखें दिखलाकर दबाना उतना कठिन है। धार्मिक और सामाजिक दृष्टि से वे अन्य हिन्दुओं की अपेक्षा अधिक स्वाधीन हैं और सदा रहे हैं। लड़ना उनका पेशा है । मनमानी करने में और अपनी आन की खातिर में अपना घर बिगाड़ देना या जान को खतरे में डाल देना जाट की विशेषता है ।
जाट अपने आपको "चौधरी " कहलवाना अधिक पसन्द करता है। वह वैदिक धर्म का पालक है, न कि पौराणिक धर्म का । अन्त में जाट जाति के विषय में सर डारलिंग के शब्दों में यही कहा जायेगा कि - " सारे भारत में जाटों से अच्छी ऐसी कोई जाति नहीं है जिसके सदस्य एक साथ कर्मठ किसान और जीवन्त जवान हों ।
उपरोक्त सभी उद्धरणों के आधार पर यही कहना तर्कसंगत है कि जाटों के रीति- " रिवाज, शक्ल सूरत इत्यादि सभी वैदिक आर्यों से मिलते हैं। जाट मूलतः आर्यों के ही वंश के हैं।
मुसलमान इतिहासकारों का मत :-
जाटों की उत्पत्ति विषयक विवाद में सभी इतिहासकारों ने अपने-अपने मत दिये हैं। इस उत्पत्ति विषयक झमेले से मुस्लिम इतिहासकार भी नहीं बच सके हैं। उन्होंने भी जाटों की उत्पत्ति का विश्लेषण किया है। ग्यारहवीं शताब्दी में अरब यात्री अलबरूनी ने यहाँ तक लिखा था कि- " श्रीकृष्ण के पिता वासुदेव शूद्र थे और वे जट्ट वंश के पशु पालक थे । ( प्रमाण देखें- उपेन्द्रनाथ शर्मा-जाटों का नवीन इतिहास पृष्ठ - 4 )
अरब के अन्य इतिहासकारों ने भी जाटों के सम्बन्ध में प्रकाश डालने का प्रयास किया है। सन् 1026 ई. (417 हि.) में अबूहसन अली बिन मुहम्मद अल हब्लती ने महाभारत कथा का अरबी से फारसी में अनुवाद किया था । भारतीय भाषा से अरबी में अबू शालिह बिन सुय्यब बिन जामी ने अनुवाद किया। फारसी रूपान्तर के संक्षेपण के बाद में अज्ञातकालीन फारसी ग्रन्थ मुजमिल अल- तवारीख ( 1127-93) में हुआ था। इन ग्रन्थों से पता चलता है कि महाभारत काल में सिन्धु नदी के आस-पास जाटों का निवास था । महाभारत के अनुसार जयद्रथ सिन्ध देश के राजा बृहद क्षत्र (बद्धक्षत्र ) का पुत्र था और इसका विवाह धृतराष्ट्र की पुत्री दुःशला से हुआ था । सिन्ध के अतिरिक्त वह शिव का भी शासक था । कौरवों ने सिन्ध में बसी उत्तेजित अथवा युद्धरत जातियों के प्रतिवेदन पर वहाँ की राजनैतिक घटनाओं में हस्तक्षेप किया और दुर्योधन ने अपनी बहन दुःशला को सिन्ध का शासक बनाया। इस समय सिन्ध में मूलतः जट (प्राकृत जट्ट, संस्कृत जत- जाट ) और भिद (संभवतः भेद अथवा भेद भाट ) अथवा मेवाड़ ( मरूभूमि ) में जाकर बसने वाले भद्र या मेव नामक दो जातियाँ रहती थी, इनमें परस्पर प्रतिद्वन्द्विता थी । (प्रमाण वही)
(3) पौराणिक कथाओं पर आधारित जाटों की उत्पत्ति का सिद्धान्त जाटों की उत्पत्ति के विषय में कई कथायें भी प्रचलित हैं। भगवान शिव की जटाओं से जाटों की उत्पत्ति का उल्लेख करने वाली एक मनोरंजक कथा "देव संहिता' में वर्णित की गई है । "देव संहिता " नामक धार्मिक ग्रन्थ ने जाट उत्पत्ति के सम्बन्ध में एक नई कल्पना को जन्म दिया है- श्रृणु देवि । जगद्वन्दे सत्य सत्यं वदामि ते ।
जट्टानां जन्म कर्माणि यत्र पूर्व प्रकाशितम् ।। महाउग्रा महावीर्या महासत्य पराक्रमा ।
सर्वाग्रे क्षोत्रिया जट्टा देव कल्पादृढव्रताः । । सृष्टे गढ़ौ महामाये वीरभद्र स्वशक्तिनः । कन्यानां हिदक्षस्य गर्भे जाता जट्टा महेश्वरी । । गर्वसर्वोत्र विप्राणां देवानां च महेश्वरी ।
विचित्र विस्मयं सत्य पौराणिके संगोपितम् ।।
अर्थात् श्री महादेव जी ने पार्वती जी से कहा कि हे जगज्जननि भगवती । जाट जाति के जन्म कर्म के विषय में उस सत्यता का वर्णन करता हूँ जो अभी तक किसी ने प्रकाशित नहीं की । ये जट्ट महापराक्रमी, I
अत्यन्त
वीर्यवान और प्रचण्ड पराक्रमी हैं । सम्पूर्ण क्षत्रियों में यही जाति सर्वप्रथम शासक हुई। ये देवताओं के दृढ़ संकल्प वाले हैं । सृष्टि के प्रारम्भ में वीरभद्र की योगमाया के प्रभाव से दक्ष कन्याओं द्वारा जाटों की उत्पत्ति हुई । इस जाट जाति का इतिहास अत्यन्त विचित्र एवं विस्मयजनक है। इनके उज्ज्वल अतीत से ब्राह्मणों और देवताओं के मिथ्या अभिमान का विनाश होता है, इसलिए इस जाति के इतिहास को पौराणिकों ने अभी तक छिपाया हुआ था । (प्रमाण देशराज जघीना के जाट इतिहास पृष्ठ 85 के हवाले से ) उपर्युक्त ऐतिहासिक मतों तथा उनकी आलोचना:- प्रत्यालोचनाओं के प्रकाश में किसी निश्चित मत का प्रतिपादन एक कठिन कार्य है, तथापि इनके आधार पर हम शोध से सम्बन्धित कतिपय मूल प्रश्नों के सम्बन्ध में स्वयं एक औचित्यपूर्ण मत तो निर्धारित कर ही सकते हैं । ये प्रश्न निम्नलिखित हैं- (1) जाट जाति कितनी प्राचीन है?
(2) जाट शब्द की उत्पत्ति कैसे हुई ? (3) जाटों का मूल स्थान कहाँ था ?
(1) प्रथम प्रश्न के उत्तर में हम कह सकते हैं कि भारतीय इतिहास के सम्बन्ध में क्रमबद्ध जानकारी सिकन्दर के भारतीय आक्रमण के पश्चात् से ही उपलब्ध है। तत्कालीन यूनानी इतिहासकारों तथा आचार्य पाणिनी ने पंजाब में निवास करने वाली वीर जातियों के संघों का विस्तृत उल्लेख किया है। इस तथ्य को भी प्रायः सभी विद्वानों का समर्थन प्राप्त है कि इन्हीं जातियों के लोग जाटों के पूर्वज थे । इसका अर्थ यह होता है कि जाटों की पूर्वज ये जातियाँ सिकन्दर के भारतीय आक्रमण से बहुत पूर्व काल से यहाँ निवास कर रही थी । उनके द्वारा विकसित राजनैतिक संघो की प्रणाली इस तथ्य का प्रमाण है कि वे इस प्रदेश में सिकन्दर के पूर्व बहुत काल से निवास करते आ रहे थे। जिस जाट संघ के ढ़ाण्डा आर्य क्षत्रियों का मैं संक्षिप्त इतिहास लिख रहा हूँ वे भी इसी प्रदेश के वासी थे ।
आर्यों के शारीरिक गठन से जाटों के शारीरिक गठन की समानता भी विद्वानों ने स्वीकार की है। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि जब तक यह सिद्ध न कर दिया जाए कि जाटों का शारीरिक गठन किसी अन्य प्राचीन जाति के समान है, जाट कम से कम उतने प्राचीन तो हैं ही जितनी की आर्य जाति । पाठकगण आर्य का अर्थ श्रेष्ठ आचरित जन से ग्रहण करें ।
(2) दूसरे प्रश्न के उत्तर में हमारा कथन है कि जाट जाति ने स्वयं के सम्बोधन हेतु " जाट " शब्द को क्यों चुना? इस सम्बन्ध में भी विद्वानों ने विभिन्न मत प्रस्तुत किये हैं । इस सम्बन्ध में मुख्य रूप से निम्न धारणायें प्रस्तुत की गई हैं-
(अ) अन्य जातियों के नामों की समानता के आधार पर नामकरण । (ब) राजाओं के नामों के आधार पर नामकरण ।
(स) पौराणिक कथाओं के आधार पर नामकरण ।
(द) ऐतिहासिक घटनाओं के आधार पर नामकरण ।
(अ) कतिपय विद्वानों ने यूरेशिया के विभिन्न भागो में फैली हुई जातियों यथा - यूति, येथा, गोथ, यूची, गिट, जेटा आदि शब्दों के आधार पर ही जाट शब्द को व्युत्पन्न स्वीकार किया है किन्तु ये समानतायें सतही हैं तथा जाट शब्द की व्युत्पत्ति के सम्बन्ध में अधिक ठोस आधार नहीं बन सकती । (ब) इस सिद्धान्त के अन्तर्गत जाटों को अनेक राजाओं के नामों से सम्बन्धित किया गया है, उनका सम्बन्ध सम्राट् यत् (यट) की मृत्यु से जोड़ा गया है। एक राजपूत राजा द्वारा एक गुर्जर सुन्दरी से विवाह कर लिये जाने पर इन्हीं की सन्तान जाट कहलाने लगी, ऐसी कथा भी उपलब्ध होती है। लेकिन यह तथ्य प्रामाणिक जान नहीं पड़ता। क्योंकि जाटों से राजपूत बने हैं न कि राजपूतों से
जाट ।
(स) इस वर्ग में मुख्य रूप से जाटों के नामकरण के सम्बन्ध में दो विचारधाराओं का उल्लेख मिलता है। प्रथम जठरोत्पत्ति का सिद्धान्त तथा द्वितीय शिव की जटाओं से उत्पत्ति के कारण जाट शब्द के नामकरण का सिद्धान्त । राजाओं तथा पौराणिक कथाओं के आधार पर नामकरण वस्तुतः किसी जाति की स्वयं की प्राचीनता सिद्ध करने की बलवती इच्छा का ही परिणाम होती है । अतः इन आधारों का भी जाट जाति के नामकरण से प्रामाणिक सम्बन्ध नहीं है ।
(द) महान एवं शक्तिशाली जातियों के नामकरण उनके कर्म अथवा ऐतिहासिक विकास के आधार पर होना कोई नई बात नहीं है। वस्तुतः गिरीशचन्द्र द्विवेदी द्वारा प्रतिपादित जाटों के नामकरण सम्बन्धी यह मान्यता अधिक उपयुक्त जान पड़ती है कि साम्राज्यवादी शक्तियों का सम्मिलित प्रतिरोध करने हेतु पंजाब तथा भारत के उत्तरी-पश्चिमी व पर्वतीय सीमांत के विभिन्न गणों ने परस्पर एक शक्तिशाली संघ का निर्माण किया और उसे एक सम्मान नाम "जाट" प्रदान किया । संभावना यह भी है इन संघों ने महाराजा शिव को उपास्य देव स्वीकार किया हो। इसी कारण शिवजी की जटाओं (गणों) से जाटों की उत्पत्ति को जाट लोग ही स्वीकार करते हैं। आर्य सम्राट महादेव जी तथा उनके पुत्रों कार्तिकेय और गणेश ने गणों की परम्परा को जन्म दिया । प्रायः आज के जाटों में ही ये मानव समुदाय गण जाट गोत्रों और खापों के रूप में विद्यमान हैं ।
जाट विशुद्ध आर्य हैं -
जाट भारतीय आर्य हैं या विदेशी हैं इस बारे में देशी-विदेशी इतिहासकारों में तथा लेखकों में अनेक भ्रान्त धारणाएं बनी हुई हैं। इसका एकमात्र कारण है जाटों ने अपना इतिहास कभी नहीं लिखा। आज जाटों में शिक्षितों की कोई कमी नहीं है लेकिन जाट समाज अपने लेखकों, जाट इतिहास के शोधकर्त्ताओं, जाट विद्वानों, जाट पत्रकारों को कभी एक मंच पर एकत्रित करके जाटों के बारे में शोधकार्य के लिए विचार विमर्श नहीं करता तथा न ही उनका उपयुक्त सम्मान करता । यही कारण है कि जाटों का इतिहास जाट लेखकों ने कम लिखा है और गैर जाटों ने ही अधिक मनमाने ढंग से लिखा है । अनेक इतिहासकारों ने जाटों को अनार्य सिद्ध करने का प्रयास किया है। म्लेच्छ तथा शूद्र तक लिखकर संतोष की सांस ली है । परन्तु अधिकांश इतिहासकारों ने यह स्वीकार किया है कि जाट भारतीय आर्यों की सन्तान हैं। किसी भी जाति का मूल खोजने के लिए उस जाति की शारीरिक बनावट, उस जाति के लोगों का धर्म, रहन-सहन, कर्म आदि बहुत ही महत्त्वपूर्ण अंग हैं। इन सभी दृष्टियों से जाट आर्यों के सच्चे प्रतिनिधि हैं।
महर्षि दयानन्द और आर्य समाज की स्थापना के बाद उत्तर भारत के जाटों में यह आत्मविश्वास पुनः जागृत हुआ कि हम आर्यों की सन्तान हैं। महर्षि ने जब अपने अमर ग्रंथ " सत्यार्थ प्रकाश" में यह लिख दिया कि जब ऐसे ही जाट जी के से पुरुष हों तो पोपलीला संसार में न चलें । इससे जाटों का महान चरित्र उजागर हुआ है यह ऋषिवर द्वारा जाटों को दिया गया महत्त्वपूर्ण प्रमाण पत्र समझना चाहिए । जो लोग जाटों को आज भी बातों ही बातों में मूर्ख कहते नहीं थकते उनके लिए महर्षि के शब्द अपना विचार परिवर्तन करने के लिए काफी हैं ।
महाराष्ट्र के विद्वान " महाभारत मिमांसा " के लेखक चिन्तामणि विनायक वैद्य कहते हैं कि- मानव तत्त्व अनुसंधान के लक्षणों के अनुसार जाट ही साफ तौर से आर्य हैं।
मिस्टर ड्ब्लू क्रुक साहब ने जाटों को शुद्ध भारतीय आर्य सिद्ध करते हुये लिखा है कि जाटों की भाषा का प्रत्येक शब्द का मूल संस्कृत भाषा में मिलता है। जैसे- ओड़ै, ओड़, (अत्र) कड़ै, (कुत्र) बुल्हद (वृषभ, बैल) आदि -आदि। मि0 नेसफील्ड लिखते हैं कि " भारतीयों में आर्य विजेता और मूल निवासी जैसा कोई विभाग नहीं हैं । वे बिल्कुल आधुनिक हैं। यह अंग्रेजों की कुचाल रही है जो उन्होंने इस वीर जाति को आक्रान्ता कहा है ।
कानूनगो ने लिखा है कि :-" आर्य जाट भारत से बाहर भी गए हैं। जाट सच्चे भारत पुत्र हैं । भारतीय इतिहास की रूपरेखा के लेखक जयचन्द्र विद्यालंकार ने लिखा हैं कि " आर्यावर्तीय आर्यो का सबसे अनोखा निर्विवाद नमूना अन्तर्वेद (यूपी) हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश और पंजाब के अरोड़े, खत्री, जाट आदि हैं। औसत से अधिक डील डौल, गौरा गेहुआँ रंग, काली आँखे, दीर्घ कपाल, उँचा माथा, लम्बा नुकीला सम चेहरा, सीधी नुकीली नाक, उनका मुख्य लक्षण हैं। जिससे जाट वस्तुतः आर्य नस्ल है।
मि०ई०बी० हेवल अपनी पुस्तक "दी हिस्ट्री ऑफ आर्यन रूल इन इण्डिया' में कहते हैं कि जाट लोग आर्य हैं। आगे वे लिखते हैं कि मानव तत्त्व विज्ञान की खोज बताती है कि भारतीय आर्य जाति जिसको हिन्दू युद्ध ग्रन्थों में लम्बे कद, सुन्दर चेहरा, पतली लम्बी नाक, चौड़े कन्धे, लम्बी भुजाएं, शेर की सी पतली कमर, हिरण की सी पतली टांगे वाली जाति बतलाया है। वह आधुनिक समय में पंजाब में खत्री, जाट और राजपूत आदि जातियों के नाम से पुकारी जाती है । ठाकुर देशराज जाट इतिहास में संकेत करते हैं कि "जाट आर्य हैं। इसमें कोई संदेह नहीं किन्तु मैं समझता हूँ कि जाटों ने एक लिपि का आविष्कार किया था वह लिपि कहीं सिंधी, कहीं खुदाबादी, कहीं शहाबादी, कहीं महाजनी और कहीं जाटवी कही जाती है ।
आज भी जाट गुण, कर्म व स्वभाव के आधार पर आदर सम्मान करने की परम्परा को कायम बनाये हुये हैं । जाटों में किसी भी जातीय नेता की प्रसिद्धि एवं प्रतिष्ठा वंश गोत्र के कारण नहीं हुई है अपितु गुण, कर्म व स्वभाव से हुई है। जाट समाज में सभी जाट गोत्र समान हैं । कोई छोटा बड़ा का भेद नहीं है। सब ही गोत्रों की रोटी बेटी लेने देने में कोई अन्तर नहीं है । स्त्रियों को समान अधिकार प्रदान करना एवं उनका सम्मान करना आर्यों की विशेषता आज भी जाटों में मिलती है । जाटों में सच्चे अर्थों में स्त्री जाति का सम्मान इस दृष्टि से भी है कि जाट जाति का कोई युवक अन्य जाति में विवाह कर भी ले तो उस स्त्री को दायभाग का पूर्ण अधिकार मिलता है । जाट के घर आई जाटनी कहलाई प्रसिद्ध है । जाट अपने भाई की विधवा से बिना हिचकिचाए विवाह कर लेते हैं जो वैदिक शास्त्रों के अनुकूल है। इसे नियोग, विधवा विवाह, करेवा आदि कहा जाता है। यह प्रथा केवल जाटों में मिलती है। इससे भी जाट आर्यो के वंशधर प्रमाणित होते हैं ।
प्रो० कानूनगो ने जाट की सहज लोकतन्त्रीय प्रवृत्ति का प्रमुख रूप से उल्लेख किया है । वे लिखते हैं कि - ऐतिहासिक काल में जाट समाज उन लोगों के लिए महान शरणस्थल बना रहा है जो हिन्दुओं के सामाजिक अत्याचार के शिकार होते थे । यह दलित तथा अछूत लोगों को अपेक्षाकृत अधिक सम्मानपूर्ण स्थिति तक उठाता और शरण में आने वाले लोगों को एक सजातीय आर्य ढांचे में ढालता रहा है। शारीरिक लक्षणों, भाषा, चरित्र, भावनाओं, शासन व सामाजिक संस्था विषयक विचारों की दृष्टि से आज का जाट निर्विवाद रूप से हिन्दुओं के अन्य वर्णों के किसी भी सदस्य की अपेक्षा प्राचीन वैदिक आर्यो का अधिक अच्छा प्रतिनिधि है । (प्रमाण डॉ० के आर कानूनगो जाटों का इतिहास पृष्ठ-11) गणतन्त्र प्रणाली के मानने वाले आर्यों के वंशधर जाटों के बारे में इतिहासकारों ने कितना सच कहा है कि जाट किसान शान्ति के समय हल चलाकर अन्न उपजाते हैं और क्रान्ति के समय में राष्ट्र रक्षा के लिए तलवार के धनी बनकर देश की रक्षा करते थे । और आज भी सैनिक सेवा के माध्यम से सीमा पर पहरा देते हैं। लेकिन श्रमजीवी संस्कृति के समुपासक आर्य जाटों का सामन्तवादी राजतन्त्री व्यवस्था के चलते उचित मूल्याकंन नहीं हुआ । आज भी यह जाति उपेक्षित है ।
जाटों के मूल स्थान के सम्बन्ध में दो मत अधिक प्रचलित हैं:-
1. भारत के बाहर मध्य एशिया अथवा यूरोप उनका मूल स्थान था ।
2. पंजाब अथवा अफगानिस्तान का पहाड़ी क्षेत्र जो तत्कालीन भारत का सीमान्त था, उनका मूल स्थान था ।
वर्तमान में अविभक्त पंजाब (वर्तमान पंजाब, हरियाणा एवं पाकिस्तान का पंजाब प्रान्त) राजस्थान के
उत्तरी जिले तथा उत्तर प्रदेश के पश्चिमी जिले जाटों के केन्द्र स्थल हैं। यह सही है कि इस क्षेत्र में से कुछ इलाकों में जाटों ने ऐतिहासिक कारणों से अपना प्रसार किया किन्तु लगभग इन्हीं क्षेत्रों में वे आज से ढाई हजार वर्ष से भी अधिक पूर्व सिकन्दर के आक्रमण के समय भी निवास करते आ रहे थे । यह इस तथ्य की ओर संकेत करता है कि जाट जाति अपनी मातृभूमि से अनन्य प्रेम करती थी तथा विदेशी आक्रान्ताओं के भारत दबाव के कारण भी उसने अपना मूल स्थान नहीं छोड़ा ।
1. कतिपय विद्वानों द्वारा उन्हें शक, हूण तथा अन्य विदेशी जातियों की संतान बताने का प्रयत्न किया गया है। कुछ इतिहासकार जाटों को आक्सस नदी के तटवासी कुछ इन्हें सिथिया, वैक्ट्रिया तथा स्केण्डीनेविया से आया हुआ बताते हैं । इन विद्वानों के अनुसार ईस्वी पूर्व पहली और दूसरी शताब्दियों में जाट अफगानिस्तान से आकर किन्तु यदि हम जाटों को आर्यो की संतान स्वीकार करते हैं तो उनका मूल निवास स्थान वही होना चाहिए जो आर्यो का आदि स्थान था । विदेशी भाषा समूहों का जाटों की भाषा पर कोई प्रभाव न होना इसी तथ्य की ओर इंगित करता है कि यदि वे किसी जाति से सम्बन्धित हैं तो आर्य जाति से ही ।
2. वस्तुतः जाटों के मूल स्थान तथा उनकी उत्पत्ति का अध्ययन प्राचीन आर्यों के सम्बन्ध में नये तथ्य प्रदान कर सकता है। स्पष्ट ऐतिहासिक एवं भाषा वैज्ञानिक प्रमाणों के अभाव में वर्तमान में यही स्वीकार करना तर्क संगत है कि जाट जाति प्राचीन काल से ही पश्चिमी पंजाब के मैदानी क्षेत्र तथा कन्धार (गान्धार) एवं काबुल के पर्वतीय क्षेत्र में निवास करती थी । निकटस्थ क्षेत्रों की ऐतिहासिक घटनाओं का प्रभाव जाटों पर भी समय समय पर पड़ा किन्तु उन्होंने सीमान्त की अन्य जातियों के समान उस प्रदेश को न त्यागकर वहीं वीरतापूर्वक जमे रहकर आक्रान्ताओं से लोहा लिया। इस जाति पर पश्चिम तथा उत्तर की ओर से विदेशी आक्रान्ताओं के आक्रमण हुए किन्तु इसके पूर्व वह भारतीय साम्राज्यवादियों से भी लोहा लेती रही । भारतीय साम्राज्यवादियों ने जाट जाति को भारत के बाहर मध्य एशिया तथा यूरोप के देशों तक पहुंचाने के कारण प्रदान किये जबकि विदेशी आक्रान्ताओं ने भारत के अन्य क्षेत्रों में जाटों के प्रसार को गति प्रदान की।
ठाकुर देशराज मारवाड़ का जाट इतिहास पृष्ठ 39 पर उद्धृत तथा इसतखरी की पुस्तक अलमसालिक बल मुमालिक पृष्ठ 56 पर उद्धृत के हवाले से प्रो० पेमाराम राजस्थान के जाटों का इतिहास में लिखते हैं कि - जाटों के बारे में जाटों के निवास स्थान के बारे में अलग-2 मत हो सकते हैं । परन्तु इसमें कोई विवाद नहीं है कि जाट मुख्यतः सिंधु नदी तथा उसकी सहायक पांच नदियां - सतलुज,व्यास,
रावी, चिनाव व झेलम नदियों के किनारे यानि सिंध और पंजाब में निवास करते थे । वैदिक काल में जाटों का आदि देश अनितया नदी से लेकर सिन्धु तक था । उनकी आवास भूमि की सीमाएं उत्तर में इक्ष्वाकु और सेहून नदियां दक्षिण में सिन्धु नदी, पश्चिम में अनितया नदी और पूर्व में स्वाती नदी तक थी। इसतखरी ने सिंध से मुलतान तक पूरे क्षेत्र को जाटों का क्षेत्र लिखा है और इसमें इनकी आबादी बताई है। जाट जाति का सर्वप्रथम उल्लेख हमें महाभारत के अनुशासन पर्व में सिंध प्रान्त में जरित्काओं के रूप में मिलता है। संभवत: यह शब्द वैदिक संस्कृत के जरित शब्द का ही अपभ्रंश रूप रहा होगा। पाणिनी की अष्टाध्यायी से भी जटझट संघाते सूत्र के आधार पर पश्चिमी और उत्तर भारत में गण संघों के रूप में पंचायती जनतान्त्रिक ढंग से संगठित कृषक और शस्त्रधर समुदाय को ही जाट माना गया है। महर्षि पतञ्जलि के महाभाष्य और कौटिल्य के अर्थशास्त्र से हमें ईसा पूर्व की शताब्दियों में भारतीय पश्चिमोत्तर सीमान्त में इसी जाति का उल्लेख मिलता है ।
रूसी विद्वान कुटयोत्सेव ने जाटों का आरम्भिक अधिवास भारत के सिंध प्रान्त में स्वीकार किया है। उनके मतानुसार कुछ लेखकों का कहना है कि भारत पर सिथियनों के आक्रमण से काफी समय पहले जाट लोग सिन्ध प्रान्त में आबाद थे और उनका सम्बन्ध महाभारत के योद्वाओं से था। डॉ0 के0 आर0 कानूनगो ने भी सिन्ध की जरित जाट और मरूत (मेड) जैसी जातियों का सम्बन्ध महाभारतकालीन लोगों से स्वीकार किया है । बंगला और सिन्धी के कोषकार नागेन्द्रनाथ वसु ने सिन्ध देश में जाट जनगण का बाहुल्य और वहां की स्त्रियों के अनुपम सौन्दर्य और सुदृढ़ सतीत्व की मुक्त कण्ठ से प्रशंसा की है। उपरोक्त सारे साक्ष्यों के आधार पर कहा जा सकता है कि जाट मूलत: सिन्धु घाटी के निवासी थे और सिन्धु घाटी के किनारों पर आबाद थे। इनकी मुख्य आबादी निचले सिन्ध विशेषकर ब्राह्मणावाद (मनसुरा) में थी । सिन्ध प्रान्त यानि उत्तर में पेशावर से लेकर दक्षिण में देवल बन्दरगाह तक यानि सिन्धु नदी का पूरा इलाका जिसमें मकरान (आधुनिक बिलोचिस्तान) भी सम्मिलित था ।
डॉo नत्थन सिंह जाट इतिहास पृष्ठ 38 पर लिखते हैं कि जाटों का विदेशों में जाना तो ठोस सत्य है, लेकिन उनका लौटकर भारत में आना भी उतना ही सत्य है। कुछ समय के लिए जाट आर्यों को अथवा उनके वंशजों को आर्थिक, सामाजिक तथा राजनीतिक कारणों से बाहर के देशों में रहना पड़ा परन्तु स्थितियां अनुकूल न होने पर पुनः भारत को लौटकर आये, इस प्रक्रिया में उन्होंने अपनी भाषा, संस्कृति तथा परम्पराओं को नहीं छोड़ा।
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दैनिक जागरण फरवरी 1999 में प्रकाशित समाचार अनुसार मध्य प्रदेश के रायसेन जिले के गांव उरदेन के पास पुरातत्त्ववेत्ताओं को खुदाई में कुछ शैल - चित्र मिले हैं जो वहां 10000 वर्ष ई० पूर्व खेती होने के प्रमाण प्रस्तुत करते हैं। आर० बी० दयाराम साहनी ने सन् 1921 में हड़प्पा के खण्डहरों का और आर० डी० बनर्जी ने सन् 1927 में मोहन जोदड़ो का सर्वे करके यह निष्कर्ष निकाला था कि यह सभ्यता 3000 वर्ष ई० पू० विद्यमान थी । सर जॉन मार्शल का विचार है कि सिन्धु घाटी की सभ्यता का समय 3000 से 2750 वर्ष ई० पू० का है। सी0 वी0 वैद्य " महाभारत एक्रिटीसीज्म" मुम्बई 1904 पृष्ठ 55-78 के अनुसार मानते हैं कि जाट 3102 वर्ष ई० पू० विद्यमान थे । इन तथ्यों के आधार पर यह विश्वासपूर्वक कहा जा सकता है कि सिन्धु घाटी सभ्यता के दौरान जाट जाति मौजूद थी । प्रमाण देखें - डॉ० नत्थन सिंह जाट इतिहास पृष्ठ-73।
ठाकुर देशराज लिखते हैं कि महाभारत युद्ध के बाद राजनैतिक संघर्ष हुआ जिसके कारण पाण्डवों को हस्तिनापुर तथा यादवों को द्वारिका छोड़ना पड़ा। ये लोग भारत से बाहर ईरान, अफगानिस्तान, अरब और तुर्किस्तान देशों में फैल गए । चन्द्रवंशी क्षत्रिय जो यादव नाम से अधिक प्रसिद्ध थे वे ईरान से लेकर सिन्ध, पंजाब, सौराष्ट्र, मध्य भारत और राजस्थान में फैल गए। पूर्व उत्तर में ये लोग कश्मीर, नेपाल, बिहार तक फैले, यही नहीं मंगोल देश में भी जा पहुंचे। कहा जाता है कि पाण्डव वंशी साइबेरिया में पहुंचे और वहां वज्रपुर आबाद किया। यूनान वाले हरक्यूलीज की सन्तान मानते हैं और इस भान्ति अपने को कृष्ण तथा बलदेव की सन्तान बताते हैं । चीन- वासी भी अपने को भारतीय आर्यो की सन्तान मानते हैं। इससे आर्यों का महाभारत युद्ध के बाद विदेशों में जाना अवश्य पाया जाता है। ये वही लोग थे जो पीछे से शक, पहलव, कुषाण, यूची, हूण, गूजर आदि नामों से भारत में आते समय पुकारे जाते हैं । द्वारिका के पतन के बाद जो ज्ञाति-वंशी पश्चिमी देशों में चले गए वे भाषा भेद के कारण गाथ कहलाने लगे तथा जाट, जेटी, गेटी कहलाने लगे ।
326 ई० पू० में जिस समय भारत पर सिकन्दर का आक्रमण हुआ, उस समय पंजाब में बसे जाटों को सिकन्दर के आक्रमण से जर्जरित तथा अपनी स्वतन्त्रता को बनाये रखने के लिए राजस्थान की ओर आने को विवश होना पड़ा। यहाॅ आकर वे अपनी सुविधा अनुसार बस गये। पानी के साधन हेतु बस्तियों के आस-पास तालाब, कुएं व बावड़ियां खोद ली । इन जातियों में शिवि, यौधेय, मालव, मद्र आदि प्रमुख थी । प्रमाण- डॉ० गोपीनाथ शर्मा राजस्थान का इतिहास पृष्ठ-19 तथा राजस्थान के जाटों का इतिहास-लेखक डॉ0 पेमाराम पृष्ठ-13 यह सोलह आने सत्य है कि सिकन्दर के आक्रमण से लेकर अरबों व तुर्कों के आक्रान्ताओं के कारण जाटों की आश्रय- भूमि सिंध और पंजाब में भारी राजनीतिक अव्यवस्था और उथल पुथल रही और विदेशी आक्रान्तोओं की मार जाटों ने झेली । उन दिनों में भारत की राजनीतिक शक्तियां बहुत निर्बल हो गई थी। इस निर्बलता का प्रारम्भ महाभारत युद्ध के बाद हुआ था । अपने जिस प्रताप और शौर्य के लिए इस देश ने जो ख्याति पायी थी, वह सब का सब महाभारत में ही क्षय हो चुका था और उसके बाद, देश की शासन सत्ता छोटे-छोटे टुकड़ों में बंट गई थी ।
देश में कोई बड़ी राजनीतिक शक्ति न होने के कारण शासन व्यवस्था लगातार गिरती जाती थी । प्राचीन राजवंशो के शूरवीर, देश के भिन्न- 2 भागों में अपनी - 2 स्वतन्त्र सत्ता के साथ शासन कर रहे थे । इस प्रकार की शासन शक्तियां देश में सैकड़ों की संख्या में थी। हालत यह थी कि जो राजा राज्य कर रहे थे, उनमें से कुछ छोटे थे और कुछ बड़े । लेकिन किसी पर किसी का आधिपत्य न था । भारत में सैकड़ों की संख्या में जो राजा और नरेश शासन कर रहे थे, उनमें परस्पर बहुत द्वेष फैला हुआ था । जो नरेश जिससे सबल होता था, अपने से निर्बल के लिए वह घातक हो जाता था । सबल एक निर्बल को मिटाकर बड़ा शासक बनने की चेष्टा करता था । इस प्रकार का द्वेष भाव सभी के बीच में चल रहा था । इसका परिणाम यह हुआ कि देश के वर्तमान नरेशों में कोई किसी का सहायक और शुभचिन्तक न था ।
इस भयानक परिस्थितियों में ही देश में जैन धर्म और बौद्ध धर्म का जन्म हुआ था । अहिंसा धर्म के प्रचार ने फूट और ईर्ष्या में पड़े हुए देश के राजाओं को विलासिता का रोगी बनाकर सदा के लिए अयोग्य बना दिया। अहिंसा के द्वारा फूट के जिन कीटाणुओं को दबाने की चेष्टा की गई थी वे दब न सके और उस चेष्टा के फलस्वरूप अहिंसा ने विलासिता का और फूट ने आपस की घृणा का भयानक रूप धारण किया । विदेशी शुत्रओं के साथ लड़ने की शक्ति हमने खो दी और आपस में लड़ने की शक्ति हमने बढ़ा ली । उस समय से लेकर आज तक यही हमारा सामाजिक जीवन है ।
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हमें लज्जा के साथ स्वीकार करना पड़ता है कि हम अपने पतन के स्वयं ही कारण रहे हैं कि विदेशी हमलों में विदेशियों की अपेक्षा हम स्वयं अधिक अपराधी हैं । इतिहासकार जे० बी० बरी अपनी पुस्तक " हिस्ट्री ऑफ ग्रीस " में साफ लिखता है कि- " सिकन्दर का इरादा भारत को विजय करने का न था । वह काबुल और सिन्ध नदियों की खाड़ियों से आगे भारत की तरफ नहीं बढ़ना चाहता था । लेकिन भारत की बढ़ती हुई सम्पत्ति और फूट की खबरों ने भारत में आक्रमण करने के लिए उसे तैयार किया था और उसके आक्रमण करने पर यहां के राजाओं ने आपस में एक दूसरे का नाश करने के लिए उसका साथ दिया ।
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अनेक विदेशी इतिहासकारों ने स्वीकार किया है कि विदेशी आक्रमणकारियों को परास्त करने की ताकत भारतीय राजाओं में थी लेकिन आपस की फूट के कारण वे संगठित होकर शत्रुओं से लड़ न सके और उस दशा में उनका सर्वनाश हुआ ।
आपस की ईष्या का परिणाम यह हुआ कि विदेशी आक्रान्ताओं को इस देश में विध्वंसकारी आक्रमण करने, लूटने और अमानुषिक अत्याचार करने के लिए द्वार खोल दिया गया। युद्ध शिक्षा लुप्त होने के साथ ही त्याग और वैराग्य ने उसके स्थान पर अधिकार कर लिया। पाँचवीं शताब्दी के मध्यकाल में हूणों के आक्रमण शुरू हुए थे और छठी शताब्दी के मध्यकाल तक उनके हमलों के सिलसिले बराबर जारी रहे। सातवीं शताब्दी किसी प्रकार बीत गई। अभी तक पिछले हमलों से होने वाली क्षतियों (हानि) की पूर्ति न हो पायी थी कि अकस्मात् अरब वालों ने जो यहां केवल रोजगारी के उद्देश्य से आये थे, जीतने के उद्देश्य से नहीं, जब उन्हें यहां के राजाओं को धार्मिकता की लहरों में बहता देखा, अंहिसा की वायु तेज दिखाई दी तो 712 ई० में शक्तिशाली सेना के साथ सिंध को जीतकर मुलतान पर अधिकार कर लिया । फिर तो इस्लाम की आंधी रूक न पाई । नवीं शताब्दी में तो इस्लाम धर्म ईरान, मिश्र और एशिया के कई देशों में विस्तार पा गया । यहां के लोगों ने यद्यपि गजनी, गौरी आदि का जी जान से मुकाबला किया। लेकिन फूट की आंधी के साथ - 2 बाह्मणों के फैलाये आडम्बर ने भारतीय नरेशों के शौर्य और प्रताप को मिट्टी में मिला दिया । ऐय्याशी के चलते उन्होंने पश्चिम से आने वाली मुस्लिम जातियों के हमले के प्रति अपनी आंखे बन्द कर ली । युद्धों के परिणाम स्वरूप जो थोड़े से शक्तिशाली राज्य थे वे आपस में लड़कर छोटे-2 टुकड़ों में बंट गये ।
भारत पर तैमूर लंग का आक्रमण हो या बाबर का, नादिरशाह या अहमदशाह अब्दाली का जाटों ने डटकर उनका मुकाबला किया था। जैसा कि के० आर० कानूनगो ने ठीक ही लिखा है । - भारी से भारी या महान विजेताओं की दहशत पैदा करने वाली प्रसिद्धि से जरा भी विचलित हुए बिना जाटों ने सभी कालावधियों में चाहे वह सुलतान महमूद गजनवी के विरूद्ध हो या नादिरशाह और अहमदशाह अब्दाली के विरूद्ध लौटती हुई या भागती हुई सेना को पीछे से दबोचने की अपनी प्रवीणता का सदा परिचय दिया । मुकाबला होने पर उन्होंने हमेशा दृढ और विकट साहस का प्रदर्शन किया और युद्धभूमि के नरसंहार या पराजय के बाद होने वाली दुर्दशा के विषय में कभी नहीं सोचा। प्रमाण डॉ० के० आर० कानूनगो - हिस्ट्री ऑफ जाट्स पृष्ठ 30
इस प्रकार मुस्लिम आक्रमणकारियों के लगातार उत्पीड़न के परिणामस्वरूप संकट के समय जाटों को पंजाब से स्थान छोड़कर सुरक्षित स्थान के लिए राजस्थान की ओर आना पड़ा । राजस्थान में जाटों ने तीन ओर से प्रवेश किया। पहला प्रवेश सिंध नदी से अमरकोट होते हुए बाढ़मेर, जालोर, सिरोही तक। दूसरा प्रवेश सतलुज की ओर से बीकानेर जांगल के रास्ते नागौर, बूंदी, कोटा, आगे मालवा तक और तीसरा प्रवेश पंजाब में सिरसा, हिसार, हांसी होते हुए हनुमानगढ, सिद्धमुख, नोहर, राजगढ़, तारानगर, सरदारशहर, लूणकरणसर व श्री डूंगरगढ़ तक । वहां से ये फिर राजस्थान के अन्य भागों में फैले तथा अलवर, भरतपुर, गंगा और यमुना के बीच दोआब प्रदेश से चम्बल के किनारे होते हुए ग्वालियर व गोहद तक बस गये। चूंकि जाट पानी के किनारे बसने के अभ्यस्त थे परन्तु मारवाड़ व जांगल प्रदेश में बसने के कारण पानी की कमी की पूर्ति के लिए इन्होंने अपनी बस्तियों के पास कुएं, तालाब, टांके, बाबडियाँ इत्यादि बना ली। मारवाड़ और जांगल प्रदेश में जितने कुएं तालाब, बावड़ियाँ बनी हुई हैं, उनमें से अधिकांश जाट व्यक्तियों द्वारा बनवाई हुई हैं और वे उन्हीं के नाम से जानी जाती हैं ।
जहां तक मैं अन्वेषण कर चुका हूँ कि महमूद गजनवी के 1008 से 1027 ई0 के आक्रमणों के दौरान बड़ी संख्या में जाटों को मौत के घाट उतारा गया। इस दौरान अनेक जाटों ने भागकर अपने प्राण बचाये और वे सिंध व पंजाब को छोड़कर राजस्थान में आये और सरस्वती नदी के किनारे - 2 आगे बढ़कर गंगानगर, बीकानेर और चुरू क्षेत्र में बस गये ।
मेगास्थनेस का पलिबोथ्र पारिभद्र में रामदत्त सांकृत्य ने पृष्ठ संख्या 49 पर श्री मोहनलाल सुखाड़िया के हवाले से लिखा है कि पुरातत्त्ववेत्ताओं की मान्यता है कि प्राचीन सरस्वती नदी की घाटी मोहनजोदड़ों और हड़प्पा जैसी सभ्यता का केन्द्र थी । सरस्वती नदी बीकानेर डिवीजन में बहती हुई कच्छ की खाड़ी में गिरती थी । उसी के किनारे सरस वेदों का सृजन हुआ, पुराणों का निर्माण हुआ । हनुमानगढ, सूरतगढ़, रावतसर, महाजन भादरा, नोहर आदि शहरों के अंचल में दृषद्वती, सरस्वती, शक्रा और वरणा के सूखे पाटों के ध्वंसावशेष प्राचीन थेहों और टीलों में मोहनजोदड़ो और हडप्पा जैसी उन्नत मानव संस्कृति के अवशेष यत्र-तत्र मिलते रहते हैं । ( प्रमाण - रंगमहल पल्लू की सुकुमारियाँ, भूमिका)
डॉ0 पेमाराम राजस्थान के जाटों का इतिहास में पृष्ठ 17 पर महमूद गजनवी के आक्रमण के बाद का उल्लेख करते हुए लिखते हैं कि शाहबुद्दीन मुहम्मद गौरी ने1175 ई0 से भारत पर अनेक आक्रमण किये और दिल्ली, कन्नौज, अजमेर राजस्थान आदि स्थानों पर अधिकार कर लिया । 1192 ई० में तराईन के द्वितीय युद्ध में पृथ्वीराज तृतीय की पराजय के बाद जब कुतुबुद्दीन ऐबक ने पंजाब पर अधिकार करने की कोशिश की तब कुतुबुद्दीन ऐबक के अत्याचारों से तंग आकर अधिकांश जाट पंजाब व हांसी से हिसार, राजगढ़, रिणी, लूणकरणसर, सिद्धमुख, नोहर, सरदारशहर, डूंगरगढ़ आदि इलाकों में आकर आबाद हुए ।
जिन ढ़ाण्डा गोत्रिय जन का इतिहास मैं लिख रहा हूँ वे भी पंजाब से चलकर मरुभूमि के बीकानेर के संभाग श्रीमोर नामक परगने में जाकर आबाद हुए। संभवतः यह काल ग्यारहवीं-बारहवीं शताब्दी का था। आचार्य पाणिनी ने ढ़ाण्डा, माहिल लोगों को दाण्डकी नाम से अभिधीत किया है। जो त्रिगर्त संघ में सम्मिलित थे । रावी, व्यास और सतलुज इन तीन नदी दूनों के बीच का प्रदेश त्रिगर्त कहलाता था । इसी का पुराना नाम जालंधरायण भी था । जिसका राजन्यादिगण 4-2-53 में उल्लेख हुआ है । अब भी त्रिगर्त कांगडा का प्रदेश जालंधर कहलाता है । रावी और व्यास के संकरे तंग नाके में होकर त्रिगर्त का रास्ता था और आज भी है। गुरदासपुर, पठानकोट यहीं हैं। जहां से औदुम्बर गणराज्य के सिक्के मिले हैं। इस प्रदेश का चालू नाम कांगड़ा हो गया। यहां सदा से छोटी-2 रियासतें रही हैं । महाभारत युद्ध में त्रिगर्त के संसप्तक योद्धा दुर्योधन की ओर से अपनी जान पर खेलकर लड़े थे। पाणिनी जी ने त्रिगर्त के छः संघ राज्यों का उल्लेख किया है। जो सब आयुधजीवी थे। 5-3-1161
काशिका में इनके नाम ये हैं- कौण्डोपरथ (कुण्डू) दाण्डकि ( ढ़ाण्ड़ा), क्रोष्टकि ( कुहाड़ ), जालमानि ( जाली ), ब्राह्मगुप्त (गोपते, बरम) और जानकि (जनक) । ये गोत्र जाटों में महत्त्वपूर्ण स्थान रखते हैं ।
अर्जुन की उत्तर पश्चिमी दिग्विजय के सिलसिले में महाभारतकार ने भी त्रिगर्त और कुलूत (मूल पाठ उलूक) पहाड़ियों में बसे हुए गणों और रजवाड़ों का उल्लेख किया है । प्रमाण सभा पर्व
27-5-16
त्रिगर्त के साथ कुरूराष्ट्र, कुरुक्षेत्र और कुरूजांगल ये इलाके एक दूसरे से सटे हुए थे । थानेश्वर, हस्तिनापुर, हिसार अथवा सरस्वती - युमना - गंगा के बीच का प्रदेश इन भौगोलिक भागों में बंटा हुआ था। गंगा-युमना के बीच में लगभग मेरठ कमिश्नरी का इलाका असली कुरूराष्ट्र था । इसकी राजधानी हस्तिनापुर थी । संभव है कि अन्य जाटों की तरह ढ़ाण्डा लोग भी हस्तिनापुर और कुरू जांगल की तरफ बढ़े हों। दिल्ली में आज भी पहाड़ गंज रायसीना, महरौली आदि स्थानों पर ढ़ाण्डा लोगों की उपस्थिति देखी जा सकती है तथा अतीत में तो इन्हें आबाद करने वाले ढ़ाण्डा गोत्रीय जन थे I
खून की वह बूंद जो देश के लिए बही हो वह दुनियां का सबसे अनमोल रत्न है ।