24.12.1675 ई0 (विक्रमी सम्वत् 1732) की ऐतिहासिक घटना महलान क्षत्रिय गोत्रियों से जुड़ी है। सिर दिया शरह ना दिया के अमर बलिदानी गुरु तेग बहादुर जी के बलिदान पर हर भारतवासी को गर्व है । जब गुरुजी किसी तरह भी औरंगजेब के सम्मुख सिर झुकाने व इस्लाम धर्म को अपनाने के लिए तैयार नहीं हुए तो उन्हें चान्दनी चौक (दिल्ली) के स्थान पर जल्लादों द्वारा औरंगजेब के आदेशानुसार कत्ल कर दिया गया। उस समय भारतीय जनता इतनी कायर, निस्तेज और निष्प्राण हो चुकी थी कि इस अत्याचार के विरुद्ध आवाज उठाने का साहस किसी में न हुआ । इस अत्याचार को देखकर सारे शहर में हाहाकार मच गया। गुरु जी का सिर व धड़ अलग-2 हो गया था । प्रकृति भी इतनी रूष्ट हो चली थी कि आंधी तूफान के कारण कुछ दिखाई नहीं दे रहा था । ऐसा प्रतीत हो रहा था कि मानो सारा ब्रह्माण्ड ये जुल्म देखकर क्रोध में आ गया हो। इस आंधी तूफान से चारों ओर भगदड़ मच गई इस भगदड़ में गुरु जी का एक श्रद्वालु शिष्य " भाई जैता" आगे बढ़ा। उसने आंधी तूफान को चीरते हुए बड़ी फुर्ती से गुरु जी का पावन सीस उठाकर श्रद्धा से अपने कपड़े में लपेट लिया। उसने अपने दो साथी भाई नानू और भाई उद्दा साथ लिये। पुलिस और फौजी दस्ते से आंख मिचौली का खेल खेलते हुए छिपते-2 पांच दिन की यात्रा के बाद कीरतपुर (पंजाब) जा पहुंचे ।
भाई जैता ने बड़े बोझिल मन से गुरु तेग बहादुर जी के सीस को उनके सुपुत्र बालक गोबिन्दराय के आगे रखा। भाई जैता एक पिछड़ी जाति (रंगरेटा) के थे । बालक गोबिन्दराय ने जैता जी के साहसिक कार्य को सराहा व गले से लगाते हुए कहा - रंगरेटे, गुरु के बेटे । उन्होंने गुरु जी के सीस का बड़े सत्कार के साथ आनन्दपुर साहिब में संस्कार कर दिया। इस स्थान पर आज एक बहुत सुन्दर गुरुद्वारा 'शीश गंज' सुशोभित है ।
उधर दिल्ली में गुरु जी के एक और श्रद्वालु शिष्य लक्खीशाह बंजारा व उसका बेटा निगाहिया रूई और दूसरे सामान की बैल गाड़ियां लेकर चांदनी चौक पहुंच गए तथा भीड़ को चीरते हुए बैलगाड़ियों को निकालकर आगे ले गये। ऐसा कथन है कि उन्होंने बड़ी फुर्ती से गुरु जी के धड़ को उठाया और रूई के ढेर में छिपा दिया तथा गाड़ियों को हांककर अपनी बस्ती (निवास स्थान) ले गये। लक्खीशाह बंजारे ने अपनी हवेली में गुरु जी के धड़ को आदर भाव से रखकर अन्तिम अरदास के बाद घर को ही आग लगा दी । उसने हिन्द की चादर को मैला होने से बचा लिया। आज उसी स्थान पर रकाब गंज गुरुद्वारा स्थित है। मुगल फौज ने गुरु जी के शीश व धड़ की बहुत खोजबीन की। लेकिन उन्हें कहीं नहीं मिला । इस तरह प्रकृति ने भाई जैता और भाई लक्खीशाह के साहसिक कार्य से गुरु जी के शरीर का अपमान होने से बचा लिया ।
दिल्ली के ऐतिहासिक गुरुद्वारे नामक पुस्तक जो दिल्ली सिख गुरुद्वारा प्रबन्धक कमेटी द्वारा प्रकाशित है के पृष्ठ 30-31 पर वर्णित है कि गुरु तेग बहादुर जी की तेरहवीं ( रस्म पगड़ी) का क्रिया कर्म राय सीना के महलान (ढ़ाण्डा) गोत्रिय जनों द्वारा किया गया था तथा इस अवसर पर उन्होंने ब्राह्मणों को दान स्वरूप कंगनों की जोड़ी, मुहरों की माला पहनाई थी। इस ऐतिहासिक घटना पर महलान (ढ़ाण्डा) गोत्रिय लोगों को अपने पूर्वजों पर गर्व है। यद्यपि महलान गोत्रिय जन जिन्होंने गुरु जी की तेरहवीं के अवसर पर रस्म अदा की थी। उनके नामों का विवरण अभी तक प्राप्त नहीं हो सका है, उनके नाम इतिहास से नदारद हैं। इस विषय में सिख गुरुद्वारा प्रबन्धक कमेटी द्वारा शोध किया जाना जारी है।
चला चलाई हो रही गड़-गड़ ऊखरे मेख ।
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लखी निगाईया ले चले तू खरा तमाशा वेख । लखी निगाईया लख गये होम हटाऊ आठ । सुखा सरीखा लख गये बहुर न आये इस वार । धन पारा देयी गुरुबनी |
पुत्र जन्मा निगाईया पाँच से हेडी मार भगाई । गुरु की लोथ उठाई लिआनी जस जग में पाईया | पिता-पुत्र रोशन भये आये ।
जस गाओ तो लखिये गोधू ठाकुर का ताजी बन्देवार । ऊटों बैलो की सोहे लार ब्राह्मण भये को दिया दान | वेल तेरी को गुरु बधाई ।
जस जोड़ केशो भट्ट भनईया साल सतरा सै अठीतईया | रकाबगंज के मल्हान कंगना की जोड़ी मुहरों की माला । भाटों को पहनाइये ।
आधार - दिल्ली के ऐतिहासिक गुरुद्वारे:-
1. गुरु तेग बहादुर हिन्द दी चादर ।
2. सर्वखाप के बलिदान का इतिहास (लेखक महीपाल आर्य)
गुरु तेगबहादुर जी के शीश को उनके शिष्य भाई जैता कपड़े में लपेटकर ले जाते हुए।
लख्खीशाह बंजारा व उसका पुत्र निगागिया गुरु तेग बहादुर जी के धड़ को रूई की गाड़ी में छिपाकर ले जाते हुए।