किसी जाति अथवा कौम की उत्पत्ति के अन्वेषण का कार्य प्रामाणिक तथ्यों के आधार पर किया जाना इतना सरल नहीं है, क्योंकि समाज की प्रक्रिया एक बहुत दीर्घकालीन विकास से गुजरती है । उसमें भी विविध प्रकार की सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, धार्मिक, भौगोलिक, शैक्षणिक और परस्पर मिश्रित व्यवस्थायें आती हैं । अतः गोत्र उत्पत्ति के अन्वेषण का विषय तो और भी दुरूह एवं कठिन है।
गोत्रोत्पत्ति के साथ नामकरण का मुद्दा व अलग -2 परगनों के वजूद में आने तक की ऐतिहासिक गाथा का मुद्दा और भी अत्यधिक जटिल शोध का मुद्दा है । फिर भी जिस गोत्र से सम्बन्धित दस्तावेज, ऐतिहासिक तथ्य सीधे तौर पर उपलब्ध नहीं हैं । हम किंवदन्ती आधार पर, अनुमान आधार पर, तर्क आधार पर, प्राचीन ग्रन्थों के अध्ययन आधार पर कुछ भ्रान्ति दूर कर अल्पीयांस प्रयास कर सकते हैं।
कुछ विद्वानों का कहना है कि सीधे तौर पर अनाज और खाद्यानों की पैदावार करने वाले जाट किसानों के प्रारम्भिक विकास के दौरान अनेक नाम अथवा पहचान चिह्न उस वक्त विद्यमान प्राकृतिक अथवा भौगोलिक वस्तुओं के नाम पर भी रखे जिन्हें हम नकार नहीं सकते । सूर्य, चन्द्रमा, सितारे, अग्नि, जल, वन, पर्वत, झीले, नदियां, समुद्र, वृक्ष, पुष्प, फल, पशु, पक्षी, स्थान तथा अन्य नजर आने वाली अनेक प्राकृतिक घटनाओं के आधार पर भी किसी कबीले की पहचान बनी हो सम्भव है। प्रारम्भिक दौर में जब मानव ने खनिजों एवं धातुओं की खोज करके औजार एवं हथियार बनाने का काम शुरू किया तो हथियारों, औजारों आदि के आधार पर कबीलों की पहचान बनी हो सम्भव है। मानव की उन्नति के साथ कबीलों का आकार बढ़ने की वजह से उनमें विभाजन भी अवश्यम्भावी था । एतदर्थ नये कबीले बजूद में आये और नये - 2 गोत्रों की उत्पत्ति हुई, इस बात की भी सम्भावना है। नामकरण की प्रक्रिया में कबीलों के सदस्यों की आदतें एवं गतिविधियां उनके कारनामे तथा उनकी मानसिक एवं शारीरिक विशिष्टताएं भी सम्मिलित हों ऐसा सम्भव है। यदि गण के सदस्य किसी खास दैवी शक्ति के उपासक या अनुयायी हों तो उनके नाम पर भी गोत्र सम्भव था, इस विषय में कोई विकल्प नहीं ।
ढ़ाण्डा, बान्दर, रोझ गोत्र पशुओं के नामों से बने प्रतीत होते होंगे । मोर गोत्र पक्षी मोर के आधार पर बना है। भले ही इसका वैज्ञानिक अथवा मूल कारण हमारी दृष्टि में अन्य है लेकिन समाज में पशुओं, पक्षियों पर बने गोत्र की ही धारणा अधिक बलवती है। दूण दुहन गोत्र स्थान (दून घाटी) के आधार पर बना है। लोहान गोत्र धातु (लोहा) के आधार पर तथा बैनीवाल गोत्र बणी (जंगल) के आधार पर बने हैं। इसी प्रकार घणघस औजार (घण) के आधार पर तथा गण्डास, कुहाड़ एवं कोहाड़ हथियारों के आधार पर बने हैं। कुछ अन्य गोत्र को मरोड़ने वाले और मुण्डतोड़ (मुंह या गर्दन) तोड़ने वाले स्वयं व्याख्यायित हैं। जबकि फोकाट अथवा फौगाट उन लोगों के गोत्र हैं जो फोग नाम की मरूस्थलीय झाड़ी को काटकर अपना निर्वाह करते थे ।
हमारा तो स्पष्ट मानना है कि किसी गोत्र में केवल शब्द अर्थ को ही सब कुछ मानकर उसका आधार बनाया जाना हमारे मन्तव्य से मेल नहीं खाता। उसके ऐतिहासिक तथ्य को खोजा जाना महत्त्वपूर्ण है । वानर गोत्र को बन्दर से जोड़ना, मोर गोत्र को मयूर से जोड़ना, गृध्र गोत्र को गीध से जोड़ना, ढ़ाण्डा गोत्र को वृषभ (बैल) से जोड़ना, किसी को लोहे से जोड़ना आदि किंवदन्ती तो हो सकती है। लेकिन इनके ऐतिहासिक अन्वेषण को समझना बुद्धिमत्ता की पराकाष्ठा होगी। एक-2 शब्द गहराई लिए हुए है। जिसके मूल में जाना दुरूह तो है ही सबके बस की बात नहीं । हमारी तो बुद्धि चकरा जाती है कि किसी भी नाम दिए गोत्र की उत्पत्ति को कैसे सुलझाया जाए। विद्वान इतिहासकार भी मतैक्य नहीं हैं। अपनी-2 बुद्धि से अपना-2 मत रख रहे हैं । हम भी उसी लाईन में लगे ढ़ाण्डा (माहिल) गोत्र का संक्षिप्त सा इतिहास आपके समक्ष रख रहे हैं । ढ़ाण्डा गोत्र समय के हेरफेर से आज अनेक नामों से अभिधीत है । दाण्डकि, ढ़ाण्डा, डण्ड, डंडा, डांडा, मल्हान, महलान, मोहिल, माहिल, मावलिया, महला, महलावत, माहेय, माही, मल्हन, महिल, माहिय आदि सभी का मूल इतिहासकार एक ही मानते हैं ।
I
यह आर्य क्षत्रिय चन्द्रवंशी जाटवंश है जिसका प्राचीन काल से शासन रहा है। यह गोत्र रामायणकालीन है। महाभारत काल में भी इसका वर्णन मिलता है। हमारे प्राचीन ग्रन्थ महाभारत जिसमें हमारे आर्यो के पारिवारिक और सामाजिक आदर्श विद्यमान हैं, में भीष्म पर्व अध्याय 9 श्लोक 48 के अनुसार माहीं और नर्मदा नदियों के मध्य इनका जनपद था । यह जनपद गुजरात एवं मालवा की प्राचीन भूमि पर था । स्मरण रहे कि गुजरात का पुराना नाम सुराष्ट्र था । यवन लेखक इसे सिरष्ट्र लिखते थे । पंजाब का वर्तमान काल का मालवा महाभारत युद्ध काल का मालवा प्रदेश है । यह प्रदेश आधुनिक फिरोजपुर से शुरू होता है। माहेय जनपद का उल्लेख महाभारत में है। यह माहेय जनपद ही ढ़ाण्डा गोत्रिय जन का शासकीय स्थान था। माहेय ऋषि वैदिक वाङ्मय में भी वर्णित है । उनके नाम थे अर्चनाना, श्यावाश्व, तरन्त और पुरपीढ़। ये सभी मन्त्रद्रष्टा तत्त्वज्ञ थे । जैमनीय ब्राह्मण ग्रन्थ 1-152 अनुसार जमदग्निर्ह वै माहेयानां पुरोहित आस अर्थात् प्रसिद्ध जमदग्नि माहेयों का पुरोहित था । वह परशुराम का पिता था। ब्राह्मण ग्रन्थ के इस प्रकरण के अन्त में उसे भृगु कहा है। इस धारणा को एक ओर बात भी प्रमाणित करती है कि भरूकच्छ का दूसरा नाम मृगुकच्छ था। वर्तमान में यह स्थान भरोच कहलाता है। इसे भृगु क्षेत्र भी कहते थे । यह स्थान माहेय जनपद के समीप है।
पंo भगवद्दत्त ने अपने भारतवर्ष के इतिहास में उपरोक्त तथ्य की पुष्टि की है तथा इस जनपद को माही और नर्मदा नदियों के बीच का क्षेत्र लिखा है। प्रसिद्ध इतिहासकार कर्नल टॉड और स्मिथ ने इस जनपद को सुजानगढ़ बीकानेर की प्राचीन भूमि पर अवस्थित लिखा है ।
महाभारत काल में ढ़ाण्डा शब्द का उल्लेख मिलता है। महर्षि पाणिनी ने अष्टाध्यायी में इन्हें दाण्डकि कहा है। उन्होंने त्रिगर्त के छह संघ राज्यों का उल्लेख करते हुए लिखा है कि कौण्डोपरथ (कुण्डू) दाण्डकि (ढाण्डा), क्रौष्टकि ( कुहड़) कोहाड़ आदि जालमानि ( जालि), ब्राह्यगुप्त ( गोपते) जानकि (जनक) आदि गोत्रों का एक सम्मिलित गणराज्य था जानकि संघ की सेना त्रिगर्त के राजा सुशर्मा की सहायक बनकर भारत युद्ध में दुर्योधन की ओर से लड़ी थी। महाभारत के आदि पर्व 61/17 तथा उद्योग पर्व 4/17 में यह बात प्रामाणिक है। चौथी, पांचवी शदी ई० पूर्व का पंचनद प्रदेश ठांव-ठांव (स्थान-स्थान पर गणराज्यों से भरा हुआ था । अतः यह तो निश्चित है कि माहिल लोग किसी जनपद के शासक थे ।
बराहमिहिर ने अपनी पुस्तक बृहत संहिता में इनका नाम डण्ड लिखा है। संभवतः यह ढ़ाण्डा गोत्र डण्ड का अपभ्रंश हो गया है। इसी प्रकार दाण्डकि शब्द भी ढ़ाण्डा में परिवर्तित हो गया है । (प्रमाण जाट इतिहास संयुक्त लेखक स्व0 प्रताप सिंह शास्त्री एवं महिपाल आर्य पृष्ठ 186 ) प्रमाण 'जाट ज्योति' लेख महीपाल आर्य ।
11 वीं से 16वीं सदी तक तत्कालीन पंजाब के पूर्वी क्षेत्र बीकानेर, जैसलमेर, जोधपुर तथा ऊपरी गंगा, जमना, दोआब में कर्मठ एवं ओजस्वी जाट बस गये थे। उन्हीं वीर आर्य क्षत्रियों में से माहिल (ढ़ाण्डा) जन एक हैं। इन्होंने अपने पुरूषार्थ से जांगल प्रदेश में अपना आशियाना बनाकर अलग से अपना राज्य कायम किया। राजस्थान इतिहास के लेखक कर्नल टॉड ने पृष्ठ 1126 खण्ड-2 में लिखा है कि इस जाट वंश ने बीकानेर राज्य स्थापना (संभवतः 1489 ई0) से पूर्व चौपर (छापर) में जो बीकानेर से 70 मील पूर्व में है और सुजानगढ़ के उत्तर में द्रोणपुर में अपनी राजधानियां स्थापित कर ली थी । इनकी राणा पदवी थी। चौपर (छापर झील) भी मोहिलों के राज्य में थी जहां अत्यधिक नमक बनता है। इनका 140 गांवों पर शासन था । चौपर (छापर) हीरासर, गौपालपुर, चारवास, सौंदा, लाडनू, बीदासर, मलसीसर, खरबूराकोट आदि परगने इनके राज्य में सम्मिलित थे । चौपर (छापर) ढ़ाण्डा (मोहिल) गोत्रिय जन की राजधानी थी। इस जाट वंश ने बीकानेर राज्य की स्थापना से पूर्व अनुमानतः 1500 वर्ष तक शासन किया। मोहिलों के अधीश्वर की यह भूमि माहिलावाटी कहलाती थी ।
मुहणोत नैणसी की ख्यात भाग -1 पृष्ठ 189-195 में वर्णित है कि यह वंश चौहान वंशीय राजा मोहिल का वंश है। चौहान राणा गंग का पुत्र इन्द्र था। इन्द्र का अर्जुन और अर्जुन का सुर्जन हुआ । सुर्जन (सज्जन) का पुत्र ही मोहिल था । यही इस वंश का आदि पुरुष था । इसका राज्य छापर और द्रोणपुर में था । मोहिलों से विक्रमी संवत् 1532 में राठौरों ने छापर व द्रोणपुर छीन लिये। कर्नल टॉड भी इसी मत का समर्थन करता है। मुहणौत नैणसी की ख्यात में इनकी वंशावली इस प्रकार से है- 1. मोहिल 2. हरदत्त 3. वीर सिंह 4. बालहर 5. आसल 6. आहड़ 7. रणसिंह 8. साहणपाल 9. लोहट 10. बोबा 11. बेग 12. माणकराव 13. सामन्त सिंह
यह बात तो सत्य है कि 698 ई0 में आबू यज्ञ के बाद कुछ जाट वंशों ने चौहान उपाधि धारण करके अपने को गौरवान्वित समझा और कुछ ने नवीन हिन्दू (पैराणिक धर्म) की दीक्षा लेकर राजपूत कहलाये। यह ऐतिहासिक तथ्य अधिक पुष्ट है कि जाट शब्द राजपूत शब्द से कई शताब्दियों पहले का है। अतः मोहिल लोग जाट पहले हैं चौहान बाद में । अहीर, राजपूत, गुर्जर, परमार, प्रतिहार, चालुक्य, चौहान आदि वर्गीकरण आर्य समुदाय के ही दूसरे नाम हैं। उनकी रगों में एक ही वंशधरों का खून बह रहा है। जो विभिन्न समय में विभिन्न नामों से इस देश व प्राचीन विश्व के वासी हैं।
राजपूतों ने इस प्राचीनकालीन मोहिल (ढ़ाण्डा) वंश को अल्पकालीन चौहान वंश की शाखा लिखने का प्रयत्न किया । इतना ही नहीं चौहान खाप में लगभग 24 शाखाएं लिख डाली तथा चौहान खाप संघ में 43-44 के लगभग गोत्र सम्मिलित करके उन्हें उपवंश का दर्जा दे दिया जबकि वे स्वतन्त्र गोत्र हैं। इस संघ में मोहिल (माहु ढाण्डा), भूकर (भाखर), खांगट, सिवाच, सोही (साहू), चहल ( चाहिल), पांखल (पंगल) घेल (घेड़), राव, नाहर (नाहरवाल), भानी (भानीवाल), लेघा (लड्ढा), लोका (लूकी) महोरिया (मेहर), रापड़िया (रैपाड़िया, भार (भारीवास), बौहदल (बोहला), जागलान (जगलान) मोर, सिंहमार, माहिल (ढ़ाण्डा), गोपत (गुप्ता), लोहान ( लोहायन), श्योराण, जनवार (जानवार ) वेदा, सोगरिया (सोग्धर), दूहन ( दोहन), हेला, लोहान (लवाच), सिद्धू (सेधू) हुड्डा (होडा), समिन (समिल), रोझ (रोजया) भांभू (भाना), चोटिया, भादू, रोड़ (रार) तथा लम्बोरिया (लोमड़) इत्यादि गोत्र सम्मिलित थे। यह सत्यता की पराकाष्ठा है कि चौहानों को आज भी लाकड़े कहा जाता है, जो जाटवंश है। चौहानों का प्रथम राज्य शेखावाटी में अनन्त नाम से था । इस विस्तृत भू भाग पर उत्तर भारत से चौहान साम्राज्य की समाप्ति के समय अनेक छोटे-2 स्वतन्त्र राज्य थे, जिनमें मोहिलों (ढ़ाण्डा) का भी स्वतन्त्र राज्य था । इस भ्रम से कुछ इतिहासकार व लोग भी इन्हें चौहानों का उपवंश समझने लगे जो हमें मान्य नहीं है। शेखावाटी, माहिलावाटी, सीकरवाटी, झुंझनूवाटी में अनेक गांव जाट पुरुषों के नाम से बसे हैं। लेकिन 15 वीं सदी के अन्त में चौहानों की नव मुस्लिम कयामखानी शाखा ने विक्रम संवत् 1507 (1450ई0) में झुंझनू तथा 1508 (1451 ई0) में फतहपुर की दो समृद्ध एवं सुदृढ़ नवाबियाँ स्थापित कर दी। आज जाटों की दशा देखने से नहीं लगता कि कभी ये इन क्षेत्रों के निर्माता वंशज थे। लेकिन जाट इनके निर्माता वंशज थे, यह सच्चाई है ।
राजस्थान रणबांकुरे वीरों की भूमि रहा है । वीरों के वीरतापूर्ण कार्यों एवं वीरांगनाओं के त्याग व बलिदान से इतिहास भरा पड़ा है। यहां के युद्धाग्रणी वीर वीरता के उदाहरण बन गए हैं। मातृभूमि की रक्षार्थ शेर की तरह शत्रु पर टूट पड़े । रण में पीठ नहीं दिखाई। ऑन बान पर मर मिटने वाले वीरों की गाथाओं से मरूभूमि का इतिहास भरा पड़ा है। चौपर (छापर) के मोहिलों (ढ़ाण्डा) का इतिहास भी त्याग एवं वीरता के लिए उज्ज्वल है।
ग्याहरवीं शताब्दी में माहेय जनपद के स्वामी ढ़ाण्डा लोग पंचनद प्रदेश को छोड़कर प्रख्यात जाटवीर गंग के पुत्र इन्द्र के नेतृत्व में अपने दल सहित श्रीमोर नामक परगने के गांव मोर में आबाद हो गए। मोर गांव टोडर सिंह तहसील, जिला टॉक (राजस्थान) का प्रसिद्ध परगना है । नैणसी ने इन्द्र के पौत्र सुर्जन (सज्जन को इस वंश का श्रेष्ठ शासक सामन्त लिखा है जो श्रीमोर परगने का शासक था । चारण चापै सामोर ने सुर्जन के विषय में लिखा है कि-
पूरबली पल पालवा तुड़ तांगण गहवंत ।
अजण तणों वंस ओपियों सुजन हुये सामन्त ।।
सुर्जन (सज्जन) का एक पुत्र मोहिल बड़ा बहादुर था । उसने छापर पर अधिकार कर अपने वंश का किस प्रकार विस्तार किया इस सम्बन्ध में एक ऐतिहासिक घटना प्रसिद्ध है ।
मोहिल के पिता सुर्जन (सज्जन) की कई रानियां थी । मोहिल बड़ी रानी का बड़ा पुत्र था । वह महत्वाकांक्षी, उत्साही, स्वतन्त्र प्रवृत्ति का वीर योद्धा था । सुर्जन अपने पुत्र मोहिल का से वैचारिक मतभेद के कारण अन्य पुत्रों की अपेक्षा कम स्नेह करता था । अन्य दरबारी भी उसकी गतिविधियों और योग्यता से द्वेष भाव रखते थे । स्वाभिमानी मोहिल को ऐसे वातावरण में रहना मुश्किल था । अतः ऐसी स्थिति में वीर मोहिल ने अपना स्वतन्त्र राज्य कायम करने का विचार किया। उसने अपने दो विश्वस्त साथियों को उपयुक्त क्षेत्र का पता लगाने के लिए भेजा। ऐसा उपयुक्त क्षेत्र जहां की भूमि उपजाऊ एवं हरी भरी हो, साथ ही आसानी से भी जीती जा सके। मोहिल के साथियों ने घूम - 2 कर अनेक क्षेत्र देखे जिसमें उन्होंने छापर की जमीन को उपयुक्त समझा तथा मोहिल को इस बारे में बताया। उस समय छापर पर बागड़ियों का अधिकार था । बागड़ियों (राजपूत) का छापर व द्रोणपुर पर शासित होना नैणसी ने वि0 सं0 631 बताया है । अतः मोहिलों के शासनकाल से बहुत पहले छापर एवं द्रोणपुर शिशुपाल वंशी परमार डाहलियों के अधिकार में थे । बागड़ी सख्या में अधिक होने के कारण युद्धाग्रणी भी थे ।
बागड़ियों से मुकाबला करने के लिए मोहिल के पास न तो सेना थी और न ही धन था । स्वाभिमानी मोहिल ने अपने पिता सुर्जन से भी सहायता लेनी नहीं चाही । बिना सेना एवं बिना धन के बागड़ियों से छापर लेना आसान नहीं था। मोहिल ने अपने पिता के एक धनी दरबारी संतन बोहरा से धन लेकर एक छोटी सी सेना का गठन किया। मोहिल के मित्रों ने भी उसे समर्थन देकर उसका साथ दिया। उचित समय पर मोहिल ने सेना लेकर बागड़ियों पर आक्रमण कर दिया। बागड़ियों ने बड़ी वीरता से मोहिल सेना का मुकाबला किया। लेकिन वे वीर मोहिल के पराक्रम के सामने टिक नहीं सके। मोहिल ने बागड़ियों को पराजित कर छापर पर अपना अधिकार कर लिया। इस प्रकार छापर पर अधिकार करने के बाद मोहिल ने राणा की पदवी धारण करके अपने राज्य का विस्तार करना शुरू कर दिया। छापर के पश्चिम में चरला, रासीसर, उत्तर पश्चिम में वर्तमान में सरदार शहर तथा दक्षिण में लाडनूं तक हजारों मीलों तक मोहिल ने अपना राज्य बढ़ाया । कथन है कि उस समय उसके अधिकार में 1400 गांव थे । (प्रमाण छापर का इतिहास लेखक सोहनलाल प्रजापति पृष्ठ 9)
छापर की राजगद्दी पर बैठने के बाद मोहिल ने संतन बोहरा दरबारी (जिसने धन दिया था) का उपकार के बदले लाडनूं का क्षेत्र (पूर्व में कासुम्बी नामक गांव सहित पाँच गाँवों) का अधिकार दे दिया ।
मोहिलों ने छापर के इस क्षेत्र में अपना अस्तित्व बनाये रखने के लिए अनेक युद्ध लड़े। बारहवीं से सोलहवीं शताब्दी तक यह क्षेत्र भयारण्य बना हुआ था। इस भूमि पर अनेक युद्धों में भीषण नर संहार हुआ। कई सामन्त (सौ सैनिकों से अकेला युद्ध करने वाला वीर) और सुरमा ( सौ सामन्तों से अकेला लड़ने वाला बहादुर योद्धा ) यहां लड़ते हए वीरगति को प्राप्त हो गए। प्रमाण स्वरूप मरने वाले वीरों की सैकड़ों देवलियां, समाधियां आज भी यहां की भूमि में दफन हैं । कथन है कि योद्धाओं से अधिक स्त्रियां सती हुई हैं । कल्पना से ही रोंगटे खड़े हो जाते हैं ।
ढ़ाण्डा लोगों (मोहिलों) का दबदबा दूर - 2 तक था। राजस्थान उच्च घरानों में छापर के मोहिलों की बहू बेटियों के वैवाहिक सम्बन्ध थे । मोहिलों का जहां तक शासन था वह मोहिलवाटी कहलाता था । वर्तमान समय का समस्त चुरू मण्डल पश्चिम में बीकानेर का कुछ भाग दक्षिण में नागौर का कुछ भाग, पूर्व में सीकर का कुछ भाग, मोहिलवाटी में सम्मिलित था । मोहिलों के मोहिलवाटी में अनेक ठिकाने थे। कर्नल जेम्स टॉड ने अपने इतिहास के पृष्ठ 1126 खण्ड-2 में लिखा है कि मोहिल वंश का 140 गांवों पर शासन था। 140 गाँवों के जिले (परगने), छापर (मोहिलों की राजधानी), हीरासर, गोपालपुर, चारवास, सौंदा, बीदासर, लाडनूं, मलसीसर, खरबूराकोट आदि । युद्ध के समय छापर (जो बीकानेर से 70 मील पूर्व में है) के अतिरिक्त सुजानगढ के उत्तर में द्रोणपुर में भी अपनी राजधानी स्थापित करते थे। मोहिल शासक सभी धर्मो का आदर करते थे । सती प्रथा एवं बहु विवाह का प्रचलन था । बड़ा पुत्र राजगद्दी का उत्तराधिकारी बनता था ।
अनेक युद्धों की ज्वाला से थके हारे राणा मोहिल की मृत्यु के बाद उनका बड़ा पुत्र हरदत्त छापर का अधिपति बना । राणा हरदत्त मोहिल वंश का दीपक था, बहादुर था। उसने अपनी वीरता से अपने राज्य का विस्तार किया । उस वक्त आस-पास बागड़ियों के अनेक ठिकाने थे। हरदत्त ने उन पर आक्रमण करके अपने राज्य में मिलाया । बागड़ी उससे इस कदर कांपते थे कि उस वक्त एक कहावत प्रचलित थी कि - भाग बागड़ी हरदत्त आयो । हरदत्त ने अपने पिता द्वारा स्थापित राज्य को सुदृढ़ किया। इनका समय भाटों के वृत्त में वि0 सं0 932 लिखा है। लेकिन अधिकांश विद्वानों ने इनका समय वि० सं० 1162 के आस पास लिखा है । जो शोध का विषय है ।
राणा हरदत्त की मृत्यु के बाद उसका पुत्र वीर (वर) सिंह छापर के राज सिहांसन पर आरूढ हुआ। वीर सिंह (वर सिंह) के बाद उसका पुत्र राणा बालहराव (बालहर) छापर एवं द्रोणपुर की राजगद्दी पर बैठा । वह बाहुबली एवं वीर योद्धा था । उसके समय में छापर - द्रोणपुर में शान्ति कायम रही । बालहराव के बाद उसका पुत्र आसल गद्दी पर बैठा । आसल के बाद उसका पुत्र आहड़ छापर का शासक बना। चारण चापै सामोर ने इन्हें उदार एवं अतुलित बलशाली बताया है । आहड़ के बाद छापर की राजगद्दी पर उसका पुत्र रण सिंह बैठा । वह वास्तव में रण का पर्याय था । शार्दूल था, जिससे बागड़ी, मेवासी, भयभीत थे। रणसिंह ने अपने तप से इस भू-भाग पर शासन किया। रणसिंह की मृत्यु के बाद उसका पुत्र साहणमल (सोहनपाल) छापर सिंहासनारूढ़ हुआ । इसे पतगरियो पतशाह अर्थात मर्यादा का पालन करने वाला व बादशाह को वश में करने वाला कहा गया है। साहणमल के बाद छापर की बागडोर उसके पुत्र लोहट ने संभाली। यह भुजबली शासक था । राज्य की लाज रखने वाले इस वीर की मृत्यु के बाद उसका पुत्र बोबा छापर की गद्दी पर विराजमान हुआ। वह महान वीर एवं यशस्वी था । बोबा से दूर-2 तक शत्रु भयभीत रहते थे। राणा बोबा के बाद उसका पुत्र बेग छापर की राजगद्दी पर बैठा । राणा बेग तलवार चलाने में दक्ष था । उसके बाद उसका पुत्र माणकराव मोहिल छापर की राजगद्दी पर बैठा । माणकराव मोहिल अत्यन्त प्रभावशाली वीर राणा था। इसके बारे में यहां के वृद्ध जनों से अनेक ऐतिहासिक घटनाएं सुनने को मिलती हैं। वह बड़ा दानवीर एवं कुशल शासक था। उसने अपने शासनकाल में अनेक कठिनाइयों का सामना किया । उसे अनेक युद्धों का सामना करना पड़ा तथा विजय भी प्राप्त की । कथन है कि छापर का नाम इसी से अधिक प्रसिद्ध हुआ । लाडनूं एवं द्रोणपुर माणकराव मोहिल के पूर्णतया अधीन थे । उसने बीदासर के पश्चिम में
माणकसर" नामक तालाब खुदवाया । यह तालाब आज भी माणकसर के नाम से जाना जाता है । शिलालेखों एवं ताम्रपत्रों से यह प्रमाणित होता है कि विक्रमी संवत् 1445 के आस- पास इस क्षेत्र पर माणकराव मोहिल का अधिकार था। छापर (चौपर) राजधानी थी । माणकराव मोहिल ने छापर में गढ़ का निर्माण करवाया। उसने तलवार के बल से शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर भू भाग पर अधिकार कर अनेक वर्षों तक उसका उपभोग किया ।
बीदावतों की ख्यात में लिखा है कि राणा बेग का पुत्र माणकसर मोहिल इस वंश का 17वां शासक था जो बहुत प्रसिद्ध हुआ । उसकी सवारी में सकसाई कोतल ऊँट साथ चलते थे। जिन पर " दिल्लीश्वर का पूज्य " लिखा होता था । माणकराव मोहिल के बारे में भाटों के वृत्त में लिखा है कि उसने पन्द्रह विवाह किये थे । उसके समस्त विवाह ऊँचे ठिकानों में थे । उससे भी माणकराव मोहिल की ख्याति चारों ओर फैलना प्रमाणित होती है । बीदावतों की ख्यात के अनुसार उसकी मृत्यु चोखला (चोसल्या) की तलाई पर हुई । माणकराव मोहिल को एक बार रणछोड़ भी बनना पड़ा। माणकराव मोहिल को वीरम के पुत्र गोगादेव से हार का सामना करना पड़ा । इस हार का वर्णन मुंहणोत नैणसी की ख्यात के हवाले से "कृष्णमृग संरक्षण स्थली, छापर का इतिहास" में लेखक सोहनलाल प्रजापति पृष्ठ 11 पर लिखते हैं कि बीरम का पुत्र गोगादेव थलवट में रहता था। थलवट में एक बार भयंकर अकाल पड़ा। अकाल की स्थिति में थलवट के लोग कमाने खाने के लिए अन्यत्र चले गए । गोगादेव का एक सरदार तेजा भी लोगों के साथ कमाने खाने चला गया। कुछ दिनों बाद वर्षा ऋतु में वर्षा हुई। वर्षा का समाचार पाकर बाहर गए लोग थलवट की तरफ लौटने लगे। तेजा भी उनके साथ था। लौटते समय तेजा मोहिलों के क्षेत्र में मीतासर नामक स्थान पर ठहरा । तेजा थकान मिटाने के लिए मीतासर के तालाब में नहाने लगा। वहां के मोहिल मुखिया ने तालाब में नहाने के अपराध में तेजा को पकड़कर जमीन पर घसीटा व बुरा भला कहा। जमीन पर घसीटने से तेजा की पीठ छिल गई । वहां से चलकर तेजा ने अपनी पीठ के घाव गोगादेव को दिखाए। गोगादेव ने बदला लेने के लिए मोहिल पर चढाई कर दी। गोगादेव के आक्रमण की खबर सुनकर माणकराव मोहिल भी सेना लेकर चल पड़ा। गोगादेव एवं माणकराव मोहिल के बीच भयंकर युद्ध हुआ । इस युद्ध में माणकराव मोहिल गोगादेव के सामने नहीं टिक सका। वह युद्ध से भाग खड़ा हुआ । अनेक मोहिल मारे गए। गोगादेव लूटपाट कर, अपने विश्वसनीय सरदार तेजा के अपमान का बदला लेकर लौट गया। इस घटना से गोगादेव एवं मोहिलों में वैर-भाव बढ़ गया। कुछ दिनों बाद गोगादेव जोहिया, देपालदे, धीरा और भाटियों के हाथों मारा गया ।
माणकराव मोहिल के दो पुत्र थे - सांवतसी ( सामन्त सिंह) और सांगा। माणकराव मोहिल की मृत्यु के बाद उसका पुत्र सांगा छापर का शासक बना। सांगा भी अपने पिता के समान बहादुर था । उसने मोहिलों की कीर्ति को यथावत रखा। वह धैर्यशाली राजा था। उसके बाद छापर की राजगद्दी पर उसका पुत्र बछराज आसीन हुआ । बछराज तेजस्वी राणा था । बछराज अधिक समय तक छापर का शासक नहीं रहा। क्योंकि मोहिल की ख्याति दूर -2 तक फैल चुकी थी तथा राज्य हड़पने को राजाओं की आंखों में मोहिल एवं छापर की समृद्धि खटकने लगी थी । छापर की उस समृद्धि एवं सम्पन्नता ने राज्य लोभी शासकों को घृणित से घृणित कार्य करने के लिए उतावला कर दिया। तत्कालीन मरूभूमि के जाट शासकों में भी परस्पर झगडे शुरू हो गए जिसके फलस्वरूप राठौड़ों ने उनकी फूट का लाभ उठाया । बछराज के समय में ही अजीत मोहिल छापर का अन्तिम शासक हुआ । स्मरण रहे कि पहले के जमाने में जर, जोरू और जमीन के लिए राजा लोग मर्यादाओं को त्यागकर युद्ध करना खेल समझते थे । अजीत के साथ भी ऐसा ही हुआ । अजीत संवत् 1517 के आस पास छापर का शासक बना। उसकी ख्याति दूर-2 तक फैली हुई थी । उसकी वीरता के चर्चे छापर के लिए संकट बनकर आये। भाटों के वृत्त में इसका शासक बनना संवत् 1507 लिखा है जो माणकराव मोहिल के पुत्र सावंतसी का पुत्र लिखा है ।
छापर की समृद्धि और अजीत की प्रसिद्धि एवं वीरता को जोधपुर का राव जोधासहन नहीं कर सका राव जोधा की कुदृष्टि हरे भरे समृद्ध छापर पर पड़ी। वह अजीत से सीधा संघर्ष करके तो छापर को ले नहीं सकता था । अतः तत्कालीन गोदारा शासकों से प्यार की पींग बढ़ाते हुए उसने चाल चली। राज्य बढाने के लालच में आदमी कहां तक नीचे गिर जाता है । इसका उदाहरण राठौड़ों का एक कंलकित उदाहरण है । छापर की समृद्ध भूमि हड़पने के लालच में जोधपुर के राव जोधा राठौड़ ने अपनी पुत्री राजबाई का विवाह छापर के तत्कालीन शासक अजीत मोहिल के साथ कर दिया । विवाह के बाद राठौड़ राव जोधा ने अपने दामाद अजीत को जोधपुर बुलाकर खत्म करने की योजना बनाई । दामाद को मारने की राठौड़ों में परम्परा रही है। यह परम्परा दामादकुश के नाम से कलंकित है। वह योजना सफल न हो सकी। पुनः इसी उद्देश्य से राठौड़ जोधा ने अजीत को मंडोर आने का निमन्त्रण भेजा। अजीत अपने 44 साथियों के साथ मण्डोर पहुंचा। जोधा की चाल का उसे पता नहीं था। वहां ससुराल में उनकी अच्छी आवभगत की गई। जोधा की —
इस कलंकित योजना का पता अजीत की सास भटियाणी को चल गया। वह मन की मन दुविधा में फंस गई। बड़ी चिन्तित हुई । एक तरफ पति की योजना दूसरी तरफ बेटी के सुहाग की रक्षा। किसका पक्ष ले । उसने चतुराई से काम लेते हुए अजीत के विश्वस्त साथियों को एकान्त में बुलाकर सारी परिस्थिति पर प्रकाश डालते हुए कहा कि तुम अजीत को कोई बहाना बनाकर यहां से शीघ्र ले जाओ। अजीत व तुम्हारा यहाँ रहना सुरक्षित नहीं है। तुम सब पिंजरे के पक्षी के समान यहां बन्द हो । तुम संख्या में भी कम हो। यहां तुम जोधा का मुकाबला नहीं कर सकोगे। अजीत के साथी उसे यह कहकर कि छापर से हलकारा आया है। छापर में राणा बछराज पर शत्रुओं ने आक्रमण कर दिया है । लड़ाई जारी है। सहायता के लिए शीघ्र पहुंचने के लिए कहलवाया है ।
अजीत अपनी पत्नी राजबाई को साथ ले बिना विदाई ही चल पड़ा । अजीत के बिना विदाई लिए यकायक रातों रात मंडोर से चले जाने की घटना से राठौड़ जोधा शंकित हो गया। उसने जान लिया कि मेरी योजना का पता अजीत को लग गया है। छापर पहुंचने पर ऐसा न हो कि वह मंडोर पर आक्रमण कर दे। छापर पहुंचने के बाद तो अजीत को जीतना असम्भव है। अतः उसने अजीत को रास्ते में ही खत्म करने के उद्देश्य से विशाल सेना लेकर उसका पीछा किया। द्रोणपुर के पास गणोड़ा में दोनों सेनाएं आमने सामने हुई । भंयकर युद्ध हुआ । अजीत अपनी तलवार से राठौड़ों को गाजर मूली की तरह काटने लगा । वह जिधर मुहं कर लेता उधर लाशों के ढेर लग जाते । संख्या में कम अजीत के साथी आखिर कब तक मुकाबला करते । सभी युद्ध में मारे गये । अकेला अजीत भी आखिर कब तक लड़ता । अन्त में वह लड़ता हुआ मारा गया। राठौड़ों की लज्जाजनक विजय हुई | अकेली राजबाई बची थी । उसने अपने पिता को धिक्काराते हुए कहा- 'तुमने तो कलंक का टीका ले लिया । मेरा सुहाग छीन लिया। मैं अपना धर्म निभा रही हूँ। मैं अपने पति के साथ सती होना चाहती हूँ । चिता बनाकर पहले मुझे विदा करो उसके बाद जोधपुर जाना । ' बताते हैं कि चिता सजाई गई। अजीत को गोद में लेकर राजबाई चिता में बैठकर सती हो गई । भाटों के वृत्त में यह घटना संवत् 1528 ई में होना लिखा है । गणोड़ा में घटना की साक्षी देवली मौजूद है। जनश्रुति भी यही है। बीदावतों की ख्यात में वि०सं० 1517 में सांवतसी जी मोहिल के पुत्र अजीत का छापर पर शासक होना लिखा है और मृत्यु 1521 में होना लिखा है ।
अजीत की मृत्यु के बाद अपनी पुत्री के व्यंग्य बाणों (तुमने जिस जमीन के लिए अधर्म का काम किया है, पाप सिर पर लिया है, मेरा सुहाग छीना है, वह जमीन तुम्हें फलेगी नहीं) से घायल एवं शर्मिन्दा होकर राठौड़ जोधा जोधपुर लौट गया। लेकिन उसने छापर पर अधिकार करने की आशा छोड़ी नहीं । एक वर्ष बाद जाटों की फूट का लाभ उठाकर गोदारा पाण्डु की सहायता से उसने तत्कालीन जाट वंशों जिनमें (पुनिया, बेणीवाल, जोहिया, सिहाग, सारण, गोदारा, कसवा, बांगार, मोहिल, खारा) आदि प्रमुख थे, पराधीन बना लिया। उस समय अजीत की मृत्यु के बाद बछराज मोहिल छापर पर शासन करता था । बछराज मोहिल राठौड़ जोधा के सामने नहीं टिक सका। छापर के क्षेत्र पर राठौड़ जोधा का अधिकार हो गया । परन्तु किंवदन्ती है कि राजबाई के शाप के कारण वह चार-छह महीने ही यहां टिक सका । बछराज के बाद उसका पुत्र मेघा सक्रिय हुआ । मेघा बड़ा बहादुर था । वह राह भेदी और तलवार का धनी था । उसने राठौडों पर जगह- 2 छापे मारने शुरू कर दिए। राठौड़ मेघा से तंग आ गए। मेघा ने राठौड़ो को छापर से भागने पर विवश कर दिया । मेघा ने छापर एवं द्रोणपुर पर पुनः अधिकार कर लिया । मेघा की मृत्यु के बाद मोहिलों की शक्ति कमजोर हो गई । बचे खुचे मोहिल सरदार आपस में लड़ने लगे। वे सोलह भागों में बंट गए। मेघा के दो पुत्र नरबद और बैरसल। मेघा की मृत्यु के बाद उसका पुत्र बैरसल छापर द्रोणपुर की गद्दी पर सत्तासीन हुआ । नरबद ने छापर के पास नरबदा बास बसाया । जो आज भी आबाद है । नरबदाबास में देवलियां और खण्डहर इसके प्रमाण हैं। मोहिलों की शक्ति कमजोर देखकर बदला लेने का उपयुक्त अवसर देखकर राठौड़ जोधा ने पुनः छापर द्रोणपुर पर आक्रमण कर दिया । नरबद और बैरसल उसकी शक्ति का जाटों में फूट के कारण मुकाबला न कर सके । राठौड़ जोधा ने छापर एवं द्रोणपुर पर अधिकार कर लिया। राठौड़ जोधा ने जीते हुए भाग अपने पुत्र बीदा को दे दिए। अनुमानतः सम्वत् 1532 में छापर पर बीदा का अधिकार हो गया । तदनन्तर यह मोहिलावाटी बीदावाटी के नाम से प्रसिद्ध की गई । इस वंश के जाट इस पराजय से बीकानेर को ही छोड़ गए । कुछ राजपूत बन गए राणा बैरसल के वंशज मेवाड़ में बस गए। इसके बाद तो बहुतेरे स्वतन्त्राकांक्षी मोहिलवंशी यत्र तत्र भागों दिल्ली, हरियाणा, यूपी आदि में भिन्न-भिन्न कालों में आबाद हो गए। मोहिलों द्वारा पलायन किया जाना केवल पराजय ही कारण नहीं था अपितु कृषि के लिए जल समस्या आदि भी प्रमुख कारण थे ।
उन जाट राज्यों के बारे में विस्तृत जानकारी देना अप्रासंगिक होगा जो पारस्परिक फूट व कलह, अस्त्र शस्त्रों के अभाव, सूझबूझ की कमी, संकट के समय एक न होना तथा छोटी -2 बातों के लिए आपस में लड़ने के कारण अपनी स्वयं शासित सत्ता गंवा बैठे फिर भी इसे अग्रिम पृष्ठों पर राजस्थान के बीकानेर संभाग में प्राचीन जाट गण राज्यों का संक्षिप्त विवरण दिया जा रहा है ।
सिंध और पंजाब से समय-2 पर राजस्थान में आकर जहां- 2 जाटों ने अपने गणराज्य स्थापित कर अपनी स्वयं की व्यवस्था स्थापित की ऐसों की संख्या तो सैकड़ों में है । लेकिन मुख्य सत्ता राजस्थान के उत्तरी पूर्वी इलाके पर थी। जहां इनके सात बड़े राज्य तथा इनके अलावा तीन और महत्त्वपूर्ण राज्य (बांगर, खारा पट्टी तथा ढ़ाण्डा ) थे ।
अनुभव से बढ़कर विद्यालय आज तक नहीं खुला - मुंशी प्रेमचन्द