आदिकाल से सुदीर्घकाल तक संगठित आर्य क्षत्रिय जाट जाति का इतिहास गौरवमय, अनुकरणीय एवम् आदर्शमय रहा है। इसके गोत्रों की परम्परा प्राचीन ऋषियों से चली आती थी । गोत्र का अर्थ है 'कुल' और कुल कहते हैं " सन्तान परम्परा को । महर्षि पाणिनी ने अष्टाध्यायी में गोत्र का स्वरूप स्पष्ट किया है। अपत्यं पौत्र प्रभृति गोत्रम् अष्टाध्यायी4-1-162)।
संक्षिप्ततः भाव यही है कि पौत्र से आगे चलकर जितनी भी सन्तान हों वे सब गोत्र संज्ञक होती हैं इसका अर्थ है सन्तान या 'कुल' परम्परा ही गोत्र कहलाती है। ‘कुल' अथवा वंश को चलाने वाले ऋषि को गोत्र पुरुष या संक्षेप में गोत्र कहते हैं । धार्मिक साहित्य में सामान्य रूप से सात या आठ मौलिक गोत्रों का वर्णन है । इसलिए प्रारम्भ से आठही गोत्र थे । तत्पश्चात् अनेक गोत्र उन्हीं की सन्तानों से चल पड़े । कश्यप, वशिष्ठ, भृगु, गौतम, भारद्वाज, अत्रि तथा विश्वामित्र ये सप्तर्षि हैं और इन सातों में आठवें अगस्त्य की सन्तानों के नाम ही गोत्र कहलाते हैं कि उन्होंने वैदिक धर्म का विस्तार विन्ध्याचल के उस पार तक किया तथा वे द्रविड़ों के एक प्रकार से संरक्षक संत हैं। कुछ समय बाद अनेक ऋषियों के नामों को सम्मिलित करके इन मौलिक गोत्रों की संख्या में वृद्धि की गई। गोत्रों के विश्लेषण के साथ-साथ सर्वप्रथम हमें वर्ण मर्यादा को समझना होगा ।
आदि सृष्टि में परम पिता परमात्मा ने अनेक मनुष्य उत्पन्न किए। वे सब ही एक मनुष्य जाति के हैं जिसे मानव जाति भी कहते हैं । इतिहास का साक्ष्य है कि सतयुग में सारा संसार ब्राह्मण था । कोई वर्ण विभाग नहीं था । शांतिपर्व अध्याय 186 ब्रह्मर्षि भृगु, बृहस्पति - पुत्र भारद्वाज से कहते हैं-
न विशेषोस्ति वर्णानां सर्व ब्राह्ममिदं जगत् ।
ब्राह्मणा: पूर्व सृष्टा हि कर्मभिर्वर्णतां गताः ।।10।। पिशाचा राक्षसाः प्रेता विविधा म्लेच्छजातयः । प्रनष्टज्ञानविज्ञानाः स्वच्छन्दाचारचोष्टिताः।।8।।
अर्थात् वर्णों की कोई विशेषता नहीं । सारा जगत ब्रह्मा का है। पहले सब ब्राह्मण थे । धर्म के न्यून हो जाने पर कर्मों के भेद से वर्ण-विभाग हो गया । मनुस्मृति के अनुसार जन्म से सभी शूद्र होते हैं । किन्तु संस्कारों द्वारा पृथक् वर्णों को प्राप्त होते हैं। क्योंकि अल्पज्ञ मनुष्य अनेक कार्यों में समान रूप से सफलता प्राप्त नहीं कर सकता, न सब मनुष्यों के कार्य एक समान हैं ।
वैदिक काल में राज्य व्यवस्था का सूत्रपात हुआ । राज्य व्यवस्था नहीं चलेगी, मानव का नि:शंक कल्याण नहीं होगा, असन्तोष और ईर्ष्या के कुलषित भाव नष्ट नहीं होंगे, इन बातों को प्रत्यक्ष देखकर ऋषियों ने वेद की शरण ली। वेद के अनुसार मनुष्यमात्र प्रथम वर्ण व्यवस्था में ढ़ला । वर्ण के अनुसार मनुष्य आर्य और दस्यु दो भागों में विभक्त हुए। शुभ कर्म करने वाले आर्य और दुष्ट कर्म करने वाले दस्यु या दास कहलाये । आर्य और दस्यु दोनों के लिए 'वर्ण' शब्द का प्रयोग ऋग्वेद 3/34/9 में आया है। वेदों में 'दासु' (दस्यु) के साथ वर्ण शब्द का प्रयोग हुआ है । वर्ण शब्द का अर्थ है- चुनने वाला। अपनी-अपनी मति से मनुष्य अपना-अपना जीविकोपाय चुना करता है । किसी ने अच्छा व्यवसाय चुना तो किसी ने बुरा। इन दोनों प्रकार के मनुष्यों के लिए वर्ण शब्द का प्रयोग वेद में है । परन्तु इनके लिए जाति शब्द का नहीं । तैत्तिरीय ब्राह्मण 31/2/9/41 में इस बात की पुष्टि होती है। मनुष्य फिर चार वर्णों में बंटे । वेद के आधार पर आर्यों के चार वर्ण अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र मनुष्यों के गुण, कर्म, स्वभाव के अनुसार बनाये। यह वर्ण व्यवस्था सामाजिक संगठन भली- भान्ति स्थिर रखने हेतु आरम्भ की गई। इसकी विशेषता यही रही कि सामाजिक शक्ति की बागडोर किसी एक वर्ग के हाथ में नहीं दी गई । ब्राह्मणों को सर्वोपरि गौरव तो दिया किन्तु राज्य सत्ता से परे रखकर यजन - याजन, पठन-पाठन आदि का काम सौंपा। क्षत्रियों को राज्य ऐश्वर्य तो दिया । किन्तु सम्मान में ब्राह्मणों को ऊँचा रखा और धन पर वैश्यों का अधिकार दिया । वैश्य सम्पत्ति उत्पादक वैभवशाली तो माने गए किन्तु सम्मान ब्राह्मण का और शासन क्षत्रिय का ही रहा ।
जिस समय आर्यावर्त में वर्ण व्यवस्था गुण, कर्म, स्वभाव के अनुसार की जाती थी उस समय वर्ण बदले जा सकते थे । मनुष्य अच्छे कर्म करने से ब्राह्मण और नीच कर्म करने से ब्राह्मण भी शूद्र बन जाता था । इतिहास साक्षी है कि ब्राह्मण पिता का पुत्र इन्द्र कर्म से क्षत्रिय हुआ । शान्तिपर्व अध्याय 22 के 11 वें श्लोक में स्पष्ट लिखा है- इन्द्रो वै ब्राह्मणः पुत्रः क्षत्रियः कर्मणाभवत् । उदाहरण के तौर पर ऐतरेय दासी पुत्र, जाबालि वैश्या पुत्र, व्यास जी जिसकी माता सत्यवती एक मछुआरे की पुत्री थी, वशिष्ठ वैश्यापुत्र, गार्गी शूद्रपुत्री ये सब ब्राह्मण माने गए ।
I
कहने का तात्पर्य है कि किसी वंश का व्यक्ति किसी महापुरुष की सन्तान होने के कारण ही बड़ा नहीं माना जाता था । वर्णों के गुण कर्मों के अनुसार ही उस वंश की कीर्ति थी । वंश के प्रत्येक व्यक्ति को उन्नति करने की स्वतन्त्रता थी कि वह ब्राह्मण पद भी हासिल कर लेता था । क्षत्रियों से ब्राह्मण बनते रहने के कारण ही ब्राह्मणों में भी क्षत्रियों के समान वंश पाये जाते हैं। वर्ण परिवर्तन के उदाहरण भी पठनीय हैं। विष्णु पुराण अध्याय - 4, श्लोक 5 अनुसार क्षत्रिय सम्राट् मान्धाता के पुत्र अम्बरीष का पुत्र हारित हुआ जिसके पुत्र हारित कहलाये । वे अंगिरस ऋषि के शिष्य बनकर ब्राह्मण कहलाये । बृहत्क्षत्र का पुत्र सुहोत्र था उसके पुत्र हस्ति ने हस्तिनापुर बसाया । हस्ति के अजमील, द्विमील, पुरमील नामक तीन पुत्र हुए। अजमील का पुत्र कण्व और उसका पुत्र मेघातिथि हुआ। जिससे क्षत्रियों और ब्राह्मणों में काण्वायन वंश चला । अजमील की सन्तान परम्परा में मुद्गल से मौद्गल्य ब्राह्मण हुए। महातपस्वी विश्वामित्र क्षत्रिय से ब्राह्मण बन जाने पर उनके वंश के कौशिक ब्राह्मण कहलाये । क्षत्रिय दिवोदास के उत्तराधिकारी मित्रायु से सोम मैत्रायण हुआ, उससे मैत्रेय ब्राह्मण कहलाये । क्षत्रिय भरत का पौत्र मन्यु, उसका पुत्र बृहत्क्षत्र था। उसी मन्यु का पुत्र गर्ग था जिसका पुत्र शिनि था । शिनि के दो पुत्र थे गार्ग्य और शैन्य, जो दोनों ब्राह्मण हुए। इस प्रकार के अनेक उदाहरण महाभारत व पुराणों में उल्लिखित हैं ।
ब्राह्मणों में क्षत्रियों के वंश मिलना और ब्राह्मणों के वंशों का क्षत्रियों में बहुत कम पाए जाने का कारण केवल यही है कि उस समय अपने ब्राह्मण कर्म से गिरने पर समाज में उसकी प्रतिष्ठा किसी निचले वर्ण में नहीं होती थी, यदि होती भी थी तो अन्तिम शूद्र में । उदाहरणार्थ रामायण युग में परशुराम ब्राह्मण ने शस्त्र सम्भाले और महाभारत में कृपाचार्य, द्रोणाचार्य और अश्वत्थामा ने युद्ध किया किन्तु वे क्षत्रिय नहीं कहलाये, ब्राह्मण ही रहे । न उनके वंश का क्षत्रियों में प्रचलन हुआ । परन्तु ये सब अत्यन्त हीन कर्म करने वाले भी न थे । इसलिए ब्राह्मण वर्ण में उत्पन्न रावण की भान्ति न तो राक्षस और न शूद्र ही घोषित किये गए। इस वर्ण व्यवस्था का एकमात्र कारण यही था कि उच्चवर्ण वाले अपने कर्मों पर दृढ़तापूर्वक स्थिर रहते हुए ऊपर कि ओर ही उन्नति करते जाएं और नीचे की ओर अधिक बढ़ने पर गहरे गर्त में गिरने से भयभीत रहें ।
महाभारत युग के बाद ब्राह्मण प्रभुत्व के समय, ब्राह्मणों ने अपना अस्तित्व चारों वर्णों में स्थापित करने के लिए वंशों में गोत्र प्रवर के पुच्छले और जोड़ दिए और यह लिख दिया कि 'सर्वं ब्रह्ममिंद जगत्' अर्थात् सारे वर्ण ब्राह्मणों से ही उत्पन्न हुए हैं। इसको परिपुष्ट करने के लिए लिखा गया कि :-
मूलगोत्राणि चत्वारि समुत्पन्नानि भारत ।
अंगिरा, कश्यपश्चैव वशिष्ठो भृगुरेव च ।।
अर्थात् अंगिरा, कश्यप, वशिष्ठ और भृगु नामक मूलगोत्र चार ही हैं । इसके बाद विश्वामित्र, जमदग्नि, भारद्वाज, गौतम, अत्रि, वशिष्ठ, कश्यप, अगस्त्य, नामक आठ गोत्रों की कल्पना की गई । ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्यों को भी इन्हीं आठ के अन्तर्गत माना गया । किन्तु बौद्ध युग में ब्राह्मण प्रभुता के विरुद्ध आन्दोलन से, गोत्रप्रवरों की सत्ता वंशों के साथ कुछ नहीं रह गई । क्षत्रिय वर्ण के वंशों ने उन्हें सर्वथा भुला दिया । याज्ञवल्क्य स्मृति पर पण्डित विज्ञानेश्वर ( जो 1076 से 1126 ई. के बीच हुआ) ने अपनी पुस्तक 'मिताक्षरा टीका' में लिखा कि जो कन्या अरोगिणी, मित्र ऋषि गोत्र की न हो और वर की माता की ओर से पांच पीढ़ी और पिता की ओर से सात पीढ़ी तक का जिससे सम्बन्ध न हो उससे विवाह करना चाहिए। इस पर उन्होंने आगे ' मिताक्षरा टीका ' में ही पृष्ठ 14 पर लिखा कि क्षत्रिय, वैश्यों में अपने गोत्र और प्रवरों का अभाव होने के कारण, उनके पुरोहितों के गोत्र प्रवर समझने चाहिएं। आश्वलायन भी कहता है कि राजाओं और वैश्यों के गोत्र वही मानने चाहिएं जो उनके पुरोहितों के हों । इसी भान्ति अन्य ब्राह्मण ऐतिहासिकों ने ऊपर लिखित इन बातों का समर्थन किया है।
परन्तु पाठकगण समझ लें कि वह ब्राह्मणों का रचा हुआ एक बड़ा षड्यंत्र था, जो अन्य वर्गों के मनुष्यों पर प्रभाव डालने और उनको अपना दास बनाने के उद्देश्य में रचा गया था। इसमें गोत्र, सन्तति, वंश का तो कोई आदर ही नहीं छोड़ा था | अमरकोष में कहा कि सन्तति, गोत्र, जनन, कुल, अभिजन, अन्ववाय आदि सब शब्दों का एक ही अर्थ है, किन्तु संस्कृत साहित्य के एकदल का बोधक प्राचीनकाल वंश से ही है और उन्हीं का अतीतकाल में आदर एवं महत्त्व था और आज भी है। वैवाहिक सम्बन्धों में वंश का ही ध्यान रखा जाता है । वंश ही सत्य रूप में इस बात के बोधक हैं कि क्षत्रियों की रगों में आज भी प्राचीन काल के आर्य महापुरुषों का परम्परागत शुद्ध रक्त बह रहा है, स्पन्दित हो रहा है। क्षत्रियों में अनेक कारणों से अनेक राज्यवंशों की स्थापना समय - समय पर होती रही है। उन वंशों के किन्हीं प्रभावशाली व्यक्तित्व वाले महापुरुषों ने ही अनेक जनपदों, राज्यों और साम्राज्यों की नींव डाली। उन्हीं वंशों में अनेक आचार-विचार के व्यक्तियों ने अनेक विचारधाराओं को स्वीकार कर उनका प्रचार किया। उन्हीं को बाद में धर्म और सम्प्रदाय का नाम दिया गया। इसी प्रकार कुछ समान विचार वाले वंशों को मिलाकर संघों का निर्माण हुआ। कुछ काल बाद उन्हीं को जाति कहने लगे। किन्तु इन सबका मूल आधार वंश है, फिर चाहे वह प्राचीन हो या नवीन । वंश प्रचलन व्यक्ति, देश, स्थान, काल, उपाधि, भाषा के नाम पर हुए । इस तरह से न केवल भारत में ही अपितु विश्व में वंशों के आधार पर ही आर्यों का, जाटों का विस्तार हुआ ।
एक अन्य मत अनुसार भारतवर्ष में बसने वाले मनुष्यों के आदिकाल में सूर्यवंश और चन्द्रवंश दो वंश थे । इन्हीं से चार वर्ण बने जिनमें 36 कुलों का जन्म हुआ था। जो दस सूर्यवंश के, दस चन्द्रवंश के 12 ऋषियों के नाम पर तथा 4 अग्नि कुल के बने थे । सारे हरियाणा में आज भी इन 36 कुलों को 36 जात के नाम से पुकारा जाता है। जबकि भरतवर्ष में वर्तमान में लगभग 4-5 हजार जातियां तथा लगभग 25,000 उपजातियां पाई जाती हैं और गोत्रों की तो गणना करना ही असम्भव है। अकेले आर्यवंशी जाटों के लगभग 4500 गोत्र हैं । गोत्रकृत माने जाने वाले ऋषियों के अतिरिक्त बाद में प्रत्येक के वंश में ऐसे प्रसिद्ध व्यक्ति हुए जिनकी विशेष कीर्ति के कारण उनके नाम से वंश का नाम प्रसिद्ध हो गया। उनकी गणना अपने मूल गोत्रों के अन्तर्गत, पर स्वतन्त्र गोत्रकर्ता के रूप में की जाने लगी। आगे चलकर और भी बहुत से कीर्तिमान गोत्रकर्ता उत्पन्न होते गए। उनकी गणना भी गोत्रों में कर ली गई। इस प्रकार मूल गोत्र और प्रत्येक गोत्र के अन्तर्गत उत्पन्न होने वाले गोत्रगणों की सूचियां प्राचीन ऋत्विज होते हैं - होता, अध्वर्यु, उद्गाता और ब्रह्मा । अर्थात् यज्ञकर्ता लोग अपनी पीढ़ियों का उच्चारण करके जो यज्ञकर्ता लोग अपने पिता, पितामह, प्रपितामह आदि की जानकारी नहीं दे सकता था उसे यज्ञ का अनाधिकारी माना जाता था । दूसरे शब्दों में कुल की पवित्रता और उसका ज्ञान देखने की प्रवर उच्चारण की परम्परा वैदिक काल में ब्राह्मणों द्वारा होती थी। जिसका मनमाना विधान क्षत्रियों और वैश्यों को नीचा दिखाने के दृष्टिगत अधकचरे पोंगा पंथियों ने रच
डाला।
इस प्रकार वंश परम्परा की जितनी गहराई में जायेंगे, उतने ही गोत्र अमर्यादित होते जाऐंगे । ब्राह्मण भी स्वयं इस दोष से बच न पाएंगे । इस स्थिति को नियन्त्रित करने के लिए ही तत्कालीन आचार्यों और समाज शास्त्रियों ने ब्राह्मणों के गोत्र मर्यादित करके उनकी सख्या 18 से 20 तक निश्चित कर दी थी। 20 संख्या से आगे किन-किन गोत्रकार ऋषियों पुरुखों को क्यों छोड़ दिया गया ? इसका प्रत्युत्तर किसी भी ब्राह्मण के पास नहीं । यही कारण है कि इस पर भी आज समाज में जब वर-कन्या के फेरे होते हैं तब शिव गोत्र या कश्यप गोत्र का उच्चारण किया जाता है। अर्थात् किसी आपात्काल में या अनध्यायवश किसी ब्राह्मण का गोत्र खो जाये या विस्मृत हो जाए उसे कश्यप ( परमात्मा का नाम) लगाकर काम निकाल लेना चाहिए यह व्यवस्था कर दी गई। गोत्र और प्रवर के आधार पर जिन समुदायों में, समुदाय के भीतर वैवाहिक सम्बन्धों का निषेध था, उनकी संख्या बहुत अधिक हो गई जिसे हम गोत्र विकास की प्रक्रिया का फल कह सकते हैं। जिस प्रकार प्रारम्भ में गोत्रों की संख्या में वृद्धि हुई और समाज में वैवाहिक प्रतिबन्ध लगे, उसी प्रकार समय के अन्तराल में इन गोत्र - भेदों का लोप भी होता गया और मूल गोत्रों तक ही वैवाहिक प्रतिबन्ध सीमित रह गए।
अच्छी पुस्तक वह है जो आशा से खोली जावे और रूचि से पढ़ी जावे
तथा ज्ञान रूपी लाभ से बंद की जावे
ग्रन्थ बोधायन श्रोतसूत्र के महाप्रवर कांड के अन्त में बहुतायत में पाई जाती है । ऋषियों के नाम से जो पुराने गोत्र चले आ रहे थे, ई. पू. पांचवीं शताब्दी के आस-पास आचार्य पाणिनी ने शब्द रूप और प्रत्ययों की दृष्टि से उनका वर्गीकरण करके उन्हें लगभग 20 गोत्रों में सूचीबद्ध कर दिया जिनमें आज तक बहुत कम हेर-फेर हुआ है। यूं तो मूल गोत्र 20 ही रहे किन्तु स्वाभाविक था, समय के अन्तराल से नये-नये परिवार बने और विकसित हुए। जो आगे चलकर विशिष्ट वंशों के रूप में प्रसिद्ध हुए और गोत्रों की संख्या निरन्तर बढ़ती चली गई। इस प्रकार ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्यों में हजारों गोत्रों के नाम प्रचलित हो गए। उनके अतिरिक्त समाज में प्रत्येक परिवार का अपने पूर्व पुरुष की अपेक्षा स्वतंत्र वंश नाम भी प्रचार में आने की सम्भावना को देखते हुए आचार्य पाणिनी ने अष्टाध्यायी में लिखा- " गोत्राणां तु सहस्त्राणि प्रयुतान्यर्बुदानि च" अर्थात् समाज में सहस्त्रों गोत्र एवं अरबों प्रयुक्त हैं किन्तु ग्रन्थों में संग्रह उन्हीं का होता रहा जो वस्तुतः यशस्वी हुए ।
गोत्रों के साथ प्रवरों का महत्त्व भी उस समय कम न था । ब्राह्मणों में इसका विशेष चलन था । उनमें यदि प्रवर भी एक समान हो तो विवाह - सम्बन्ध नहीं हो सकता था । किन्तु अन्य जातियों ने इस प्रवर के सिद्धान्त को स्वीकार नहीं किया । प्रवर का अर्थ और रहस्य तो बड़े - बड़े संस्कृतज्ञ पण्डितों के लिए भी पहेली बना हुआ है । हमारे मन्तव्य अनुसार गोत्र एवं प्रवर में जो सम्बन्ध हैं उसके विषय में इस प्रकार कहा जाता है कि " गोत्र प्राचीनतम पूर्वज हैं या किसी व्यक्ति के प्राचीनतम पूर्वजों में से एक है, जिसके नाम से युगों से कुल विख्यात रहा है। किन्तु प्रवर उस ऋषि या उन ऋषियों से बनता है जो अति प्राचीन रहे हैं, अत्यन्त यशस्वी रहे हैं और जो गोत्र ऋषि के पूर्वज या कुछ दशाओं में अत्यन्त प्रख्यात ऋषि रहे हैं ।
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संक्षिप्ततः गोत्रकार ऋषि के पिता, पितामह आदि को प्रवर कहते हैं । तात्पर्य यह है यज्ञ के होता का वरण करते समय शतपथ ब्राह्मण के अनुसार पहले 'पिता का' उसके पुत्र का और पौत्र का नाम उच्चारित करें, यही प्रवर है। प्रवर विषय को अधिक स्पष्ट करने के लिए समझना चाहिए कि प्रवर नाम पीढ़ी का है। ये पीढ़ियों किसी यज्ञकर्ता को एक, किसी को दो और किसी को तीन-चार तथा अधिक से अधिक पांच तक की जानकारी होती थी । विधिवत् यज्ञ में चार क्या है गोत्र और उसका औचित्य ?
गोत्रों की उत्पत्ति निश्चित रूप से रक्त सम्बन्ध के आधार पर हुई किन्तु वैवाहिक निषेधों के कारणों के विषय में विभिन्न विद्वानों के पृथक्-पृथक् मत हैं। विवाह का मुख्य प्रयोजन समाज के लिए उत्तम सन्तान प्रदान करना है। उत्तम - सन्तान प्राप्ति के लिए प्राचीन मनीषियों ने दार-कर्म को व्यवस्थित करने का प्रयास किया। अनेकानेक वर्षो के अनुसन्धान के बाद उन्होंने दार - कर्म से उत्पन्न गुण-दोषों को जाना और कुछ व्यवस्थाएं दी, उन्हें ही धर्माचार्य कहा गया है । उनमें मनु - याज्ञवल्क्य आदि की प्रकृति सम्मत व्यवस्था मानव समाज ने स्वीकार की । इसी कारण समाज योग्यतम सन्तान प्राप्त करता रहा। अब कहीं-कहीं भारतीय समाज पश्चिमी शिक्षा-पद्धति एवं आचार-विचार के कारण अथवा स्वार्थ एवं अज्ञानवश प्राचीन व्यवस्था को असंगत मानने लगा है। परम्परावादी परिवार तो इसे स्वीकार कर रहे हैं, लेकिन कुछ परिवार इसे छोड़ रहे हैं या छोड़ने के लिए प्रेरित कर रहे हैं । प्रचलित व्यवस्था को छोड़कर स्वेच्छा से विवाह में प्रवृत्त व्यक्ति एवं परिवारों का समाज में विरोध भी हो रहा है । इसी कारण न्यायालय में ऐसे विवाद बढ़ रहे हैं । न्यायालय भी धर्माचार्यो की प्राचीन व्यवस्था से सहमति नहीं रखता। अतः इस प्राचीन दार-कर्म की व्यवस्था पर विचार करने का मन हुआ। प्राचीन मनु- आदि धर्माचार्यो की व्यवस्था क्या है ? आधुनिक विज्ञान इसमें सम्मति रखता है या नहीं ? यहां इसी प्रकार के विचार बिन्दुओं पर विचार किया जा रहा है। जिससे समाज के समक्ष इसका यथार्थ स्वरूप आ सके। सम्भवतः व्यक्ति भी पूर्ण रूप से इसे नहीं जानते होंगे, केवल परम्परा का ही निर्वाह हो रहा है। यदि शास्त्र सम्मत एवं विज्ञान सम्मत दारकर्म-व्यवस्था समाज को ज्ञात होगी तो प्रचलित दारकर्म-विषयक विवादों को विराम लगेगा।
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प्राचीन - व्यवस्था :- धर्माचार्यों ने विवाह के लिए जो व्यवस्था दी, उसमें सगोत्र और सपिण्ड के विवाह का निषेध किया है। ब्रह्मचर्यपूर्वक विद्याध्ययन समाप्त कर युवा एवं युवती जब गृहस्थ में प्रवेश करें तो वे ही दम्पत्ती बनें, जिनका गोत्र एवं पिण्ड समान न हो। इसके अतिरिक्त अन्य निर्देश भी हैं, लेकिन प्रायः सभी आचार्यो ने इस पर अधिक बल दिया है।
मनुस्मृति - असपिण्डा च या मातुरसगोत्र च या पितुः । साप्रशस्ता द्विजातीनां दारकर्मणि मैथुने । ।
याज्ञवल्क्यस्मृति - असपिण्डायंयवीघसीम्
असमानार्ष गोत्रजम् ।
व्यासस्मृति - असमानार्षाममातृपितृ गोत्रजम् । गौतम - असमानर्षि - प्रवरैर्विवाहऊर्ध्वसप्तमात् ।
शंख स्मृति - विन्देतविधिवद् भार्या - असमानार्ष - गोत्रजाम् । मातृत - पण्चमीण्चापि पितृतस्त्वथ सप्तमीम् ।
लघु-हारीन - स्मृति- असमानर्षि गोत्रां हिकन्याम
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बुध - स्मृति- मातृतः पितृत: पंचमी सप्तमी दशमीमन्यगोत्रजाम् । इस प्रकार हम देखते हैं कि स्मृतिकारों ने सगोत्र एवं सपिण्ड में विवाह का निषेध किया है।
स्मृति-ग्रन्थों के अतिरिक्त आयुर्वेद-ग्रन्थों में भी ऐसा ही निर्देश है:- चरक-सहिंता :-
अतुल्यगोत्रस्य रजः क्षयान्ते रहो विसृष्टं मिथुनीकृतस्य ।
किं स्याच्चतुष्पात प्रभावं व षड्भ्यो यत्स्त्रीषु गर्भत्वमुपैति पुंसः । । अष्टांग संग्रह - पुमान् एकविंशतिवर्षः कन्यामतुल्यगोयां अतुलयाभिजनाम्... ।
इसी प्रकार शब्द शास्त्रकार यास्कमुनि अपने ग्रन्थ निरूक्त में लिखते हैं कि दुहिता दुर्हिता दूरे हिता भवति इति ।
यहां दूर शब्द से आशय है कि प्रथम तो गोत्र - पिण्ड की दृष्टि से रक्त सम्बन्धों की दूरी होनी चाहिए। द्वितीय देश (स्थान) की दृष्टि से भी दूरी होनी चाहिए। इस प्रकार के विवाह में ही कन्या का हित है । आज भी सांस्कृतिक रूप से समृद्ध समुदायों में विवाह प्रस्ताव के समय अपने, माता, दादी एवं नानी के गोत्र को छोड़कर ही सम्बन्ध स्थिर किया जाता है। कम से कम दो गोत्र ( अपना तथा माता का ) की दूरी तो अवश्य ही रखी जाती है । गोत्र एवं पिण्ड- विचार:
मनु जी ने विवाह के लिए पिता के गोत्र तथा माता के पिण्ड को त्याज्य कहा है, क्योंकि गोत्र का आधार पिता (पुरुष) है तथा पिण्ड (शरीर) का आधार माता (स्त्री) है। वंश परम्परा ही गोत्र है, जो पुरुष पर आधारित है आदिकाल से वंश का आधार पुरुष को माना गया है। महर्षि वाल्मीकि श्रीराम आदि के विवाह - अवसर पर लिखते हैं-
आदिवशं शुद्धानां .... इक्ष्वाकुकुलजातानाम्।।
यहां श्रीराम के गोत्र / वंश / कुल को पुरुष के आधार पर ही लिखा गया है । गोत्रशुद्धि ( विवाह - काल में ) प्राचीन काल से ही देखी जाती है । अतः दशरथ - वंश - परिचय के बाद राजा जनक भी अपने वंश - गोत्र आदि का परिचय देते हुए कहते हैं-
"
श्रोतुमर्हसि भग्रं ते कुलं नः परिकीर्तितम् ।
प्रदाने किं मुनि श्रेष्ठ कुलं निरवशेतः ।
वक्तव्यं कुल जातेन तभिबोध महामते । ।
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याज्ञवल्क्य स्मृति के प्रसिद्ध टीकाकार आचार्य विज्ञानेश्वर..... असमानार्षगोत्रजाम्” इस पद्यांश की व्याख्या करते हुए लिखते है - "गोत्रं वंशपरम्परा - प्रसिद्धं, समाने आर्ष गोत्रे यस्य तस्माज्जता न परिणेया" ।
असगोत्राम्-इत्यनेन सपिण्डाया अपि भिन्न सन्तानजायाः समानगोत्राया निषेधः। यहाँ यह स्पष्ट होता है कि पिता की कुछ पीढ़ी पहले के अन्य पुरुषों से उत्पन्न असपिण्ड स्त्री भी अपने पिता के गोत्र के कारण समान गोत्र ही है। अतः वह अपरिणेया ही होगी, क्योंकि इन दोनों (युवक-युवती) का गोत्र तो (एक ही पितृ परम्परा के कारण) समान ही है ।
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स्वामी दयानन्द सरस्वती ने दुर्योधन को 'गोत्र - हत्यारा' कहा है । गोत्र से उनका आशय वंश (कुल) से ही है, जिसका आधार भरत - कुरू- शान्तनु आदि कुल पुरुष ही माने गए हैं। बृहत्संहिता के रचयिता वराहमिहिर वृक्ष के माध्यम से इसी तथ्य की पुष्टि करते हैं। इनके अनुसार पिता बीजरूप तथा माता भूमिरूप में होती है:-
भक्तवां काण्डं पादस्योप्तं उर्व्या बीजं वास्यां नान्यतामेति यद्वत । एवं ह्यात्मा जायते स्रीषु भूयः कश्चित् तस्मिन् क्षेत्र योगाद् विशेषः । ।गीता के टीकाकार स्वामी विद्यानन्द विदेह भी गोत्र का आधार पुरुष को ही मानते हैं- " यद्यपि फल में भूमि का अंश पूर्णतया होता है । ब्राह्मण में जो ब्राह्मणत्व के गुण होते हैं, वे ब्राह्मण पिता से ही होते हैं। इस प्रकार गुण - सम्पदा (जो अन्यों से विभेद करती है) पुरुष की निधि है तथा शरीर सम्पदा स्त्री की सम्पत्ति है" ।
पिण्ड - पिण्ड से आशय शरीर एवं शरीर से सम्बन्धित रक्त आदि से है, वंश-परम्परा (पितृ - गुण) से नहीं । गोत्र स्थायी है, पिण्ड ( रक्त-सम्बन्धी आदि) पांच या छः पीढ़ी के बाद समाप्त हो जाता है । मनु जी लिखते हैं- सपिण्डता तु पुरुषे सप्तमे विनिवर्तते । इसी प्रकार याज्ञवल्क्य लिखते हैं..... पण्चमात्सप्तमादूर्ध्व मातृतः पितृतस्तथा ।
मातृतो मातुः सन्ताने पंचमादूर्ध्व पितृतः पितुः सन्ताने सप्तमादूर्ध्व सपिण्डयं निवर्तते । एवं हि वशिष्ठेनोक्तं पंचमामी सप्तमी चैव मातृतः पितृस्तथा ।
आधुनिक विज्ञान का मतः आज के वैज्ञानिक गोत्र तथा पिण्ड शब्दों का प्रयोग नहीं करते, तथापि इनके आनुवांशिकी सिद्धान्त में मुझे गोत्र व्यवस्था का आधार दृष्टिगोचर होता है। वैज्ञानिक डॉ. रामनिवास के अनुसार माता - पिता से सन्तान में 23+23=46 गुणसूत्र आते हैं, लेकिन पिता से आने वाले 23 वें गुणसूत्र केवल पुत्र में ही आते हैं, पुत्री में नहीं, जबकि माता से आने वाले 23 (सम्पूर्ण) गुणसूत्र पुत्र-पुत्री दोनों में ही समान रूप से संयमित हो जाते हैं। इससे यह सिद्ध होता है कि गोत्र (वंश) परम्परा पुरुष से पुरुष में ही संयमित होती है । इसलिए गोत्र (वंश) का आधार पुरुष ही है ।
इन्हीं के अनुसार सातवीं पीढ़ी में रक्त सम्बन्ध अर्थात् गुण-सूत्र पर आधारित गुण-दोषों का संक्रमण समाप्त हो जाता है। इसे ही प्राचीन आचार्यो ने सपिण्डता कहा होगा। सातवीं पीढ़ी तक किया गया विवाह - सम्बन्ध 'इन ब्रीडिंग' कहलाता है, जो कि दोषपूर्ण है। जो इसके बाद किया गया हो वह 'डिस्टैंस ब्रीडिंग' कहलाता है। यह उत्तम माना गया है। अमेरिकी वैज्ञानिक डॉक्टर ट्रालवेलफोर लिखते हैं " सन्तान उत्पन्न करने में स्त्री का (मादा) तत्त्व वीर्य की रक्षा करने का काम देता है और नवीन गुण पुरुष के वीर्य के प्रभाव से ही उत्पन्न होते हैं ।
"
प्रथम मानव - आचार संहिता 'मनुस्मृति' में 'असपिण्डा - असगोत्रा' युवती को ही दार - कर्म के लिए प्रशस्त माना गया है' लेकिन आगे मनु भी सपिण्डता पर अधिक बल नहीं देते अपितु विशिष्ट परिस्थिति (योग्य वर के अभाव में) छः पीढ़ी के भीतर यदि योग्य वर मिल जाये तो उससे विवाह कर देना चाहिए, ऐसा निर्देश देते हैं-
उत्कृष्टायाभिरूपाय पराय सदृशाय च ।
अप्राप्ताभषि तां तस्मै कन्यां दद्याद्यथविधि । ।
मनु जी ने सपिण्डता में कुछ छूट दे दी, लेकिन सगोत्रता में नहीं दी, क्योंकि सन्तान-उत्पत्ति (गुणदोष संक्रमण) में माता का प्रभाव न्यून तथा पिता का अधिक होता है, इसीलिए गोत्र में पीढ़ी की सीमा निर्धारित नहीं है। गुण- -दोष - विचार:- चरक संहिता के प्रसिद्ध व्याख्याकार आचार्य जयदेव विद्यालंकार अतुल्य-गोत्रस्य शब्द की व्याख्या करते हुए लिखते हैं- " यद्यपि समान गोत्रवाले स्त्री-पुरुषों के मैथुन से भी गर्भ हो जाता है, परन्तु उसमें कुष्ठ अक्षि रोग आदि नाना प्रकार के रोग होते हुए देखे जाते हैं ।
प्रसिद्ध नाड़ी - विशेषज्ञ वैद्यः- नन्दलाल जी ने शोध - गोष्ठी में कहा “गोत्र - पिण्ड व्यवस्था की अवहेलना कर विवाह करने से परिवार, समाज एवं राष्ट्र को हानि होती है। क्योंकि ऐसे विवाह से उत्पन्न सन्तान अंहकारी, विध्वंसकारी एवं क्रूर प्रकृति वाली हुआ करती है । ऐसे अनेक उदाहरण प्राप्त होते हैं । "
स्वामी दयानन्द सरस्वती जी का कहना है कि:-
(क) जैसे पानी में पानी मिलाने से विलक्षण गुण उत्पन्न नहीं होता, वैसे एक गोत्र के पितृकुल व मातृकुल में विवाह होने में धातुओं के अदल-बदल नहीं होने से उन्नति नहीं होती ।
(ख) जैसे दूध में मिश्री व शुण्ठ्यादि ओषधियों के योग होने से उत्तमता होती है, वैसे ही भिन्न गोत्र - मातृ-पितृ कुल से पृथक् वर्तमान स्त्री-पुरुषों का विवाह होना उत्तम है ।
(ग) जैसे एक देश में रोगी हो, वह दूसरे देश में वायु और खानपान के बदलने से रोग-रहित होता है, वैसे ही दूरस्थों के विवाह होने में उत्तमता है।
(घ) इत्यादि कारणों से पिता के गोत्र और माता की छ: पीढ़ी और समीप देश में विवाह करना अच्छा नहीं ।
आधुनिक विज्ञान का मतः- कुछ वर्ष पूर्व मुम्बई के 'हेलेन केलर इन्स्टीट्यूट' की विशेषज्ञ 'वेरोजवाचा' ने अपने शोध के आधार पर निष्कर्ष निकाला 'इन ब्रीडिंग' विवाह के कारण ही बच्चों में मूकता एवं अन्धता का रोग होता है ।,
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आनुवांशिकी (जेनेटिक्स) के वैज्ञानिक डॉक्टर विजय कुमार गोयल का कहना है'' लगभग पांच हजार रोग आनुवंशिकी हैं। इन ब्रीडिंग विवाह से उत्पन्न सन्तान में ये सहजता से संक्रमित हो जाते हैं, लेकिन डिस्टेंस ब्रीडिंग इन्हें सन्तान में संक्रमित होने से रोका जा सकता है। इसके लिए हमें परिवारों की वंशावली बनानी चाहिए। भारत में यह व्यवस्था रही है। अब इस तरफ ध्यान नहीं दिया जा रहा है । " बाल रोग विशेषज्ञ डॉक्टर अमर सिंह का कथन है" बच्चों के रोग-पत्र पर उसके माता-पिता आदि के रक्त सम्बन्धों का उल्लेख किया जाता है । उसकी तीन पीढ़ी तक की जानकारी ली जाती है और पारिवारिक इतिहास को जानने के बाद ही उसका उपचार आरम्भ किया जाता है। इस प्रकार इन - ब्रीडिंग एवं डिस्टेंस ब्रीडिंग को जानकर, आधुनिक चिकित्सा पद्धति (एलौपैथी) में भी वंश परम्परा का ध्यान रखा जाता है। इस प्रकार इन-ब्रीडिंग एवं डिस्टेंस ब्रीडिंग को जानकर, आधुनिक चिकित्सा पद्धति (एलोपैथी) में भी वंश परम्परा का ध्यान रखा जाता है ।
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इस प्रकार निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है कि निकट के रक्त सम्बन्धों में किए गए दार-कर्म से उत्पन्न सन्तान शारीरिक एवं बौद्धिक विकारों से युक्त होगी। भारत में ऐसे कुछ समुदाय इसके प्रत्यक्ष उदाहरण हैं, क्योंकि उनमें मामा, मौसी, बुआ आदि की सन्तानों से भी दार - कर्म (विवाह) किए जा रहे हैं।
गोत्र एवं पिण्ड व्यवस्था प्राकृतिक है। यह नियम पशु-पक्षी एवं वृक्षों पर लागू भी होता है। इन विषयों को विशेषज्ञों से मैनें विस्तारपूर्वक जानकारी प्राप्त की है । विस्तारभय के कारण उल्लेख सम्भव नहीं है। नीचे दिए गए उदाहरणों से ही आप जान सकते हैं ।
1- "छतबीड नामक प्राणी-उद्यान में एक ही माता-पिता से उत्पन्न (वंशज) अनेकानेक नर-मादा सिंह रहते थे। ये सभी इन ब्रीडिंग सन्तान होने के कारण ही रोगग्रस्त हो गये और इनमें से पचास की मृत्यु एक साथ हो गई । '
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2- " आजादी के समय भारत में पारसियों की कुल संख्या लगभग एक लाख से भी अधिक थी 1991 की जनगणना अनुसार भारत में पारसियों की
कुल संख्या थी 72634 और जो 2001 की जनगणना में घटकर रह गई 69241 यानि दस साल में 3393 कम हो गई । और 2011 की जनगणना जनसंख्या में घट कर रह गई 45000 जो चिन्तनीय है ।
3- भारत के एक धर्म विशेष की जनसंख्या लगभग 20 प्रतिशत है जबकि देश में 70 प्रतिशत मंगलमुखी (हिजड़े) उस धर्म से सम्बन्धित हैं । यह निजी सर्वेक्षण के आधार पर लिखा गया है। इन सबका कारण समगोत्र व निकट खून के रिश्तों में शादी करना है । इसलिए उत्तम सन्तान के लिए रक्त सम्बन्धों की दूरी नितान्त आवश्यक है।
उत्तरी भारत में सामान्यतः तीन गोत्र खुद का, माँ का दादी का गोत्र छोड़कर शादी की जाती है। इसी वजह से उत्तरी भारत में थेलीसीमियाँ व हेलीसिमियाँ जैसी भयानक अनेक अनुवांशिक बीमारियों से अप्रभावित है। जिसकी रोकथाम के लिए सरकार करोड़ों / अरबों रुपये खर्च कर रही है ।
गोत्र के सम्बन्ध में डॉ. राजबली पाण्डेय ने अपने विचार व्यक्त करते हुए लिखा कि- 'इस प्रतिबन्ध का उदय (किस गोत्र में विवाह न हो) रहस्य से आच्छन्न है। अनेक अन्य विद्वानों के मत भी इस सन्दर्भ में पठनीय हैं। एक सिद्धान्त के अनुसार असगोत्र विवाह की प्रथा का उदय आदिम काल में कन्याओं की न्यूनता के कारण हुआ। एक अन्य मत के अनुसार जन के अन्दर स्वेच्छाचार को रोकने के लिए सगोत्रिय विवाह का निषेध हुआ । कतिपय अन्य विद्वानों के अनुसार इस प्रथा के उदय का कारण साथ-साथ पाले पोसे हुए व्यक्तियों में परस्पर आकर्षण का अभाव था । कुछ अन्य विद्वानों के अनुसार असगोत्र विवाह की प्रथा का मूल, धार्मिक चिह्न में था । अपने जन का रक्त पवित्र समझा जाता था । उसकी दिव्यता को सुरक्षित रखने के लिए उन्होंने अपने समान धर्म चिह्न धारण करने वालों का विवाह सम्बन्ध का निषेध किया। इस प्रकार जातीय प्रजनन शास्त्र की दृष्टि से गोत्र के बाहर विवाह करना लाभकर है।
कन्या का विवाह उसी गाँव में करने से मर्यादा भंग होती है । निरूक्त में कहा गया है दुहिता दुर्हिता दूरेहिता भवतीतिः - इसीलिये ऋषि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश के चतुर्थ समुल्लास में लिखा है कि 'कन्या का नाम " दुहिता' इस कारण से है कि इसका विवाह दूर देश में होने से हितकारी होता है, निकट करने में नहीं ।' वस्तुतः भारतीय गांव व्यक्ति विशेष के बसाए हुए हैं। धीरे-धीरे परिवार बढ़ते गए और डेरे गाँव बनते गए। ये एक ही गोत्र के लोग अथवा एक ही 'पिण्ड' के वंशज हैं (खेती-बाड़ी के लिए अन्य पेशेवालों को गाँव में बसाना व्यावहारिक अथवा व्यवसायिक अनिवार्यता थी ) । इसीलिये गाँव को पंजाब में 'पिण्ड' कहते हैं। हरियाणा में अब तक गाँव गोत्र के नाम पर बोले जाते हैं, जैसे तोमर राजपूतों का गाँव, दहिया का गाँव ..... । इसलिए एक गाँव में रहने वालों को भाई-बहन माना जाता है। यही कारण है कि जनसाधारण उसी गाँव में विवाह को संस्कृति, परम्परा और मर्यादा के विरुद्ध मानते हैं ।
अधिकांश गाँव प्रधानतः एक व्यक्ति की सन्तान होने के कारण एक गोत्र के हैं और उनका पारस्परिक सम्बन्ध, रीति-रिवाज लेन-देन एक परिवार के समान हैं। किसी गाँव में व दूसरे गोत्र या जाति के लोग आकर बसते थे, वे उस गाँव की सामाजिक मर्यादाओं का पालन करते थे । इसी आधार पर हरियाणा ही नहीं, उत्तर भारत के गाँवों की बहन-बेटियाँ सभी की बहन-बेटियाँ हैं और गाँव के सभी जन परस्पर भाई-भाभी, चाचा-चाची, ताऊ ताई या दादा-दादी आज तक गाँव में यही परम्परा है और सभी परस्पर इन सम्बन्ध सूचक संज्ञाओं से एक-दूसरे को पुकारते हैं। इनके बिना पुकारना सम्मानजनक नहीं माना जाता । उत्तर भारत की संस्कृति-सभ्यता में आज भी ये मर्यादाएं, निभाई जाती हैं। यदि कोई व्यक्ति किसी गाँव में जाता है तो उस घर में यदि कोई बहू उसके गाँव या गोत्र की होती है तो वह उसको बहन के आदर के प्रतीक रूप में पांच-दस रुपये देकर उस सम्बन्ध का सम्मान करता है। किसी गाँव में बारात जाती है, तो बारात का मुखिया उस गाँव में, जितनी भी अपने गाँव की लड़कियाँ बहू के रूप में होती हैं, चाहे वे किसी भी गोत्र या जाति की हों, उन्हें बहन-बेटी के रूप में सामाजिक मान-मर्यादा का प्रतीक रुपया भेंट करता है। ये परम्पराएं सभी अनुष्ठानों के अवसर पर, चाहे वह आयोजन अपने गाँव में हो अथवा दूसरे गाँवों में, निभाई जाती हैं। यह संस्कृति उच्च आदर्श, सुदृढ़, भाईचारे और उन्नत मर्यादाओं की अद्भुत मिसाल है। सभी जातियों के अपने गाँव के लड़के-लड़कियों को भाई - बहन मानने के कारण निर्धन से निर्धन की लड़की खेत खलिहान में सुरक्षित है। यही कारण है कि शहरों के मुकाबले गाँव में यौन शोषण की घटनाएं अति न्यून होती हैं। इससे बढ़कर नारी सशक्तिकरण का और कोई ढंग नहीं हो सकता। अपने गोत्र और अपने गाँव में विवाह सम्बन्ध के निषेध से नारी समाज में आज तक जो सुरक्षा और निश्चिन्तता रही हैं, इन नियमों के न मानने से दुश्चिन्ता में परिवर्तित हो जायेगी । इसलिए इस परम्परा को सुरक्षित रखना उन्नत मानवीय संस्कृति-सभ्यता को संरक्षित करना है। रोहतक जिले के रीति रिवाजों से सम्बन्धित कानूनों पर आधारित श्री ई. जोजिफ आई. सी. एस. सैटलमैन्ट ऑफिसर द्वारा 1910 में लिखित पुस्तक का अवलोकन करें तो पांएंगे कि उन्होंने विवाह (जिसको पुस्तक के सैक्शन 3 में दिया है) के अर्न्तगत ( डिग्री आन प्रोहिविटेड रिलेशनशिप) का जिक्र करते हुए प्रश्न- 12 पृष्ठ 27 व 28 पर यह उल्लेख किया है कि विवाह गाँव व सीमा जोड़ में नहीं होना चाहिए । उक्त से हमारी प्रचलित परम्पराओं की पुष्टि होती है ।
कुछ ग्रन्थकार जाति और गोत्र को एक साथ मिलाकर भ्रम उत्पन्न करते हैं परन्तु वास्तव में ये दोनों धाराणाएं पृथक्-पृथक् हैं। गोत्र का निर्माण वंश समूह से होता है। माता या पिता किसी एक वंश के सभी रक्त सम्बन्धियों को जोड़ा जाए और उस प्रकार से वंश समूहों में एक ही पूर्वज की सभी सन्तानें सम्मिलित कर दी जाएं तो उसे गोत्र कहते हैं। जाति और गोत्र में अन्तर स्पष्ट है कि जाति का आधार श्रम का विभाजन है, जबकि गोत्र का आधार रक्त की शुद्धि है । जाति अन्तर्विवाही समूह है। इसके सदस्यों को अपनी ही जाति में विवाह करना होता है । गोत्र सदैव बहिर्विवाही समूह होता है । गोत्र में सदस्य अपने गोत्र के अन्दर नहीं बल्कि गोत्र से बाहर विवाह करते हैं । गोत्र संगठन में ऊँच-नीच का भेद-भाव नहीं होता है जबकि जाति-प्रथा सामाजिक संस्तरण और खण्ड विभाजन की एक व्यवस्था है। गोत्र में अधिकता के कारण सामुदायिक भावना विरल होती है । जाति में यह भावना सघन होती है। गोत्र अपने सदस्यों पर खाने-पीने और पेशों को चुनने में प्रतिबन्ध नहीं लागू करता, जाति-प्रथा में इन विषयों पर अनेक प्रतिबन्ध होते हैं ।
गोत्र एक ब्राह्मण संस्था होते हुए भी अपने गुणों के कारण इतनी प्रतिष्ठित हो गई कि जिसे दूसरे द्विज वर्णो अर्थात् क्षत्रिय और वैश्यों ने अपना लिया । ब्राह्मणों ने अपने वर्चस्व को अधिमान देते हुए प्रतिष्ठित श्रेणियों, वर्णों का किसी न किसी प्रकार गोत्र प्रथा अपनाने में पथ-प्रदर्शन किया। उनके प्रभाव में आकर बहुत से क्षत्रियों और वैश्यों ने उन्हीं गोत्र-नामों को अपनाया जो कि ब्राह्मणों के थे । जो भी हो, उनके गोत्र का आधार किसी प्राचीन ऋषि के पूर्वज होने पर निर्भर नहीं था प्रत्युत् केवल उन ब्राह्मणों के कुटुम्ब के गोत्र पर था जो परम्परा से उनके पारिवारिक संस्कारों को सम्पन्न कराते थे। यह प्रथा ब्राह्मण परिवार पर लागू की गई थी, पूर्ण रूप से कृत्रिम थी । अब्राह्मण परिवारों से अपने पारिवारिक संस्कारों को सम्पन्न कराते थे । अब्राह्मण परिवारों से अपने पारिवारिक पुजारियों के प्रवरों को स्वीकार करने की भी आशा की जाती थी परन्तु इस नियम का बहुत कम प्रचलन हुआ । क्षत्रियों तथा वैश्यों के वास्तविक गोत्र लौकिक थे, जिनका आधार आख्यानों के पूर्वजों के उपनाम थे । वैधानिक साहित्य ने इन लौकिक गोत्रों पर कोई ध्यान नहीं दिया है परन्तु शिलालेखों के अनेक प्रसंगों से ज्ञात होता है कि यह रवैल के अर्थ में प्रयोग होता था तथा ऐसे अनेक गोत्र विद्यमान थे जिनका विवरण किसी भी नीतिग्रन्थों की सूची में नहीं दिया गया है।
" गोत्रों का महत्त्व " :- समाज के प्राचीन संगठन में प्रत्येक गृहपति अपने घर का प्रतिनिधि माना जाता था । वही उस बिरादरी की पंचायत में अपने परिवार की ओर से प्रतिनिधि बनकर बैठता था । ऐसा व्यक्ति उस परिवार में मूर्धाभिषिक्त होता था अर्थात् सबसे वृद्ध स्थविर - ज्येष्ठ होने के कारण उसी के सिर पर पगड़ी बांधी जाती थी । पगड़ी बांधने की यह प्रथा आज भी प्रत्येक आर्य (हिन्दू) परिवार में प्रचलित है। संयुक्त परिवार की यह प्रथा उस समय बड़े नपे-तुले ढंग से चली आती थी । ज्येष्ठ भाई यदि गार्ग्य पदवी धारण करता था तो उसके जीवन काल में उसके छोटे भाई गायियण संज्ञा धारण करते थे । पाणिनी का सूत्र इस बात का प्रमाण है- " वाऽन्यस्मिन् सपिण्डे स्थविस्तरे जीवति" अर्थात् सात पीढ़ी तक कोई व्यक्ति बड़ा बूढ़ा, जीता हो तो उसके जीते जी, अपने परिवार का गार्ग्य भी गार्ग्यायण कहला सकता है तथा बड़े-बूढ़े के रहते उसे सभा में प्रतिनिधित्व करने का अधिकार नहीं होता था। हां, इतना अवश्य है कि वृद्ध स्थविर की अनुपस्थिति में अपने परिवार का गार्ग्य होने के नाते वह प्रतिनिधित्व कर सकता था । कभी ऐसा भी होता था कि वृद्ध स्थविर अपनी अशक्तता के कारण अपनी गार्ग्य पदवी अपने बड़े पुत्र को अपने जीवन काल में ही दे देता था तो उस वृद्ध की स्थिति परिवारों में गार्ग्यायण जैसे ही हो जाती थी । पुत्र यदि बलपूर्वक पिता का अधिकार छीनकर गार्ग्य होने का दावा करता था उसके लिए निगोड़ा (कैसा उतावला हो उठा है) की संज्ञा दी जाती थी । परिवार की संज्ञा " कुल" थी । "कुल" की प्रतिष्ठा पर ध्यान दिया जाता था । विवाह, वेदाभ्यास एवं यज्ञ इन तीन उपायों से कुलों की प्रतिष्ठा बढ़कर महाकुल जैसी हो जाती थी । महाभारत में महात्मा विदुर ने तप, दम, ब्रह्मज्ञान, यज्ञ, पुण्य, विवाह, सदा अन्नदान और सम्यक् आचार इन सात गुणों से युक्त परिवार को महाकुल की पदवी दी है। वंश की वृद्धि दो प्रकार से मानी जाती है। वैवाहिक सम्बन्धों से उत्पन्न सन्तति तथा विद्यावंश जो गुरु शिष्य परम्परा के रूप में चलता था । उपनिषद में इस प्रकार के कई विद्यावंश सुरक्षित हैं।
पितृवंश की अतीत पीढ़ियों की संख्या यत्नपूर्वक रखी जाती थी । ऐसी प्रथा थी कि वंश के मूल संस्थापक पुरुष के नाम से सात पीढ़ियों की संख्या जोड़कर उस वंश के दीर्घकालीन अस्तित्व का संकेत दिया जाता था। इस प्रकार गोत्र, कुलवंश, जाति का महत्त्व, कालान्तर में निरन्तर बढ़ता ही गया। जो परिवार आगे चलकर युद्धों के कारण बिखरते - टूटते गये उन्हें अपने वंश गोत्र की शुद्धता का विचार नहीं रहा और गार्ग्यण, गार्ग्यायण ही लिखने लगा, गार्गी ही गार्गी रह गया। अतः एक गोत्र के अनेक रूप समाज में प्रचलित हो गए। ऐसे अधिकांश गोत्र हैं। इन्हें शुद्ध रूप देने की आवश्यकता तो है ही किन्तु जो लोग गोत्र मानते हैं तथा मूल से एक ही गोत्रों के अपभ्रंश से भ्रमित होकर परस्पर शादी विवाह कर लेते हैं उनके लिए अपने मूल गोत्र का जानना अत्यन्त आवश्यक है ।
समय के अन्तरालों से कुछ गोत्रों के रूपान्तर इतने परिवर्तित हो गए कि उन्हें एक स्वतन्त्र गोत्र मान लेने की भूल भी स्वभाविक प्रतीत होती है। कुछ गोत्रों में वैवाहिक सम्बन्ध प्रचलित हो जाने से भी उन्हें पृथक्-पृथक् गोत्र माना जाने लगा है। एक उलझनपूर्ण स्थिति उत्पन्न हो गई है और किसी तथ्य पर पहुंचना कठिन हो गया है । फिर भी मनन, चिन्तन, स्वाध्याय से हमारा प्रयास है उलझन
को सुलझाने का । ढाण्डा गोत्र भी इस अपवाद से बच नहीं पाया है। समय के हेरफेर से ढाण्डा गोत्र आज अनेक नाम से अभिधीत है। ढ़ाण्डा, डण्ड, मल्हान, माहलाण, मोहिल, माहिल, मावलिया, महला, महलावत आदि इन गोत्रों के सभी जन एक ही पूर्वज की सन्तानें हैं ।
अपील:- गोत्र बन्धुओं से निवेदन है कि यदि अतीत में कोई शादी आपस में अज्ञानतावश हो गई हो तो भविष्य में गोत्र परम्परा की पालना कठोरता से करें ।
आधार ग्रन्थ-
अष्टाध्यायी-महर्षि पाणिनी
महाभारत
मनुस्मृति
चरक संहिता
रामायण
सत्यार्थप्रकाश
गोत्र परम्परा का वैज्ञानिक विश्लेषण - महीपाल आर्य
ऋग्वेद
मिताक्षरा टीका - पण्डित विज्ञानेश्वर
बृहत्संहिता-वराहमिहिर
स्व मन्तव्य - कुलदीप सिंह ढ़ाण्डा
स्व मन्तव्य - हितेश हिन्दुस्तानी
लैटिन कहावत है कि ऐसा कुछ नहीं कहा या लिखा जा सकता, जो पहले कहा या लिखा न गया हो ।